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________________ ३९६ जैनसम्प्रदायशिक्षा। की जगह को छोड़ कर हाथ के पीछे की तरफ से अंगूठे के नीचे के सांधे के आगे चली जाती है उस से नाड़ी देखनेवाले के हाथ में नहीं लगती है तब देखनेवाला घबड़ाता है परन्तु यदि शरीर में खून फिरता होगा तो एक हाथ की नाड़ी हाथ में न लगी तो भी दूसरे हाथ की नाड़ी तो अवश्य ही हाथ में लगेगी, इस लिये दोनों हाथों की नाड़ी को देखना चाहिये । ३-हाथ पर अथवा हाथ के पहुँचे पर कोई पट्टी डोरा वा बाजूबंद आदि बंधा हुआ हो तो नाड़ी का ठीक ज्ञान नहीं होता है, क्योंकि बांधने से धोरी नस में खून ठीक रीति से आगे नहीं चल सकता है, इसलिये बन्धन को खोल कर नाड़ी देखनी चाहिये । ४-यदि हाथ को शिर के नीचे रख कर सोता हो तो हाथ को निकाल कर पीछे नाड़ी को देखना चाहिये । ५-डरपोक आदमी किसी डर से वा डाक्टर को देख कर जब डर जाता है तब उस की नाड़ी जलदी चलने लगती है इस लिये ऐसे आदमी को दम दिलासा देकर उस का दिल ठहरा कर अथवा बातों में लगाकर पीछे नाड़ी को देखना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने पर ही नाड़ी के देखने से ठीक रीति से नाड़ी का ज्ञान होगा । ६-आदमी को बैठाकर वा सुलाकर उस की नाड़ी को देखना चाहिये । ७-परिश्रम किये हुए पुरुष की तथा मार्ग में चलकर तुरत आये हुए पुरुष की नाड़ी को थोड़ीदेरतक बैठने देकर पीछे देखना चाहिये । ८-बहुत खूनवाले पुरुष की नाड़ी बहुत जलदी और जोर से चलती है । ९-प्रातःकाल से सन्ध्यासमय की नाड़ी धीमी चलती है। १०-भोजन करने के बाद नाड़ी का बेग बढ़ता है तथा मद्य चाह और तमाखू आदि मादक और उत्तेजक वस्तु के खाने के पीछे भी नाड़ी की चाल बढ़ जाती है। इस प्रकार जब नीरोग मनुष्यों की नाड़ी में भी भिन्न २ स्थितियों और भिन्न २ समयों में अन्तर मालूम पड़ता है तो बीमारों की नाड़ी में अन्तर के होने में आश्चर्य ही क्या है, इस लिये नाडीपरीक्षा में इन सब बातों को ध्यान में रखना चाहिये। नाड़ी में दोषों का ज्ञान-नाड़ी में दोषों के जानने के लिये इस दोहे को कण्ठ रखना चाहिये तर्जनि मध्य अनामिका, राखु अंगुली तीन ॥ कर अँगूठ के मूल सों, वात पित्त कफ चीन ॥ १॥ अर्थात् हाथ में अंगूठे के मूल से तर्जनी मध्यमा और अनामिका, ये तीन १-क्योंकि दिनभर कार्य कर चुकने से सन्ध्यासमय मनुष्य श्रान्त (थका हुआ) हो जाता है और श्रान्त पुरुष की नाड़ी का धीमा होना स्ताभाविक ही है ॥ २-जिन को ऊपर लिख चुके हैं ॥ ३-तर्जनी अर्थात् अंगूठे के पासवाली अंगुली ॥ ४-मध्यमा अर्थात् बीच की अंगुली ।। ५-अनामिका अर्थात् कनिष्ठिका ( छगुनिया ) के पासवाली अंगुली ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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