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________________ ३९४ जैनसम्प्रदायशिक्षा । लियां रखकर निस्सन्देह कह देते हैं अर्थात् थर्मामेटर जितना काम करता है लगभग उतना ही काम उन का चतुर हाथ और अनुभववाली अंगुलियां कर सकती हैं। कुछ समय पूर्व स्पर्शपरीक्षा केवल हाथ के द्वारा ही होती थी परन्तु अब अन्वे. षण (ढूँढ़ वा खोज) करनेवाले चतुर लोगों ने हाथ का काम दूसरे साधनों से भी लेना शुरू कर दिया है अर्थात् शरीर की गर्मी का माप करने के लिये बुद्धिमानों ने जो थर्मामेटर यन्त्र बनाया है वह अत्यन्त प्रशंसनीय है, क्योंकि इस साधन से एक साधारण आदमी भी स्वयमेव शरीर की गर्मी वा ज्वर की गर्मी का माप कर सकता है, हां इतनी त्रुटि इस में अवश्य है कि इस यन्त्र से केवल शरीर की साधारण गर्मी मालूम होती है किन्तु इस से दोषों के अंशांश का कुछ भी बोध नहीं होता है, इस लिये इस में चतुर वैद्यों के हाथ कई दर्जे इस की अपेक्षा प्रबल जानने चाहियें, बाकी तो रोगपरीक्षा में यह एक सर्वोपरि निदान है, इसी प्रकार हृदय में खून की चाल तथा श्वासोच्छ्वास की क्रिया को जानने के लिये स्टेथोस्कोप नाम की नली भी बुद्धिमान् पश्चिमीय विद्वानों ने बनाई है, यह भी हाथ का काम करती है तथा कान को सहायता देती है, इस लिये यह भी प्रशंसा के योग्य है, तात्पर्य यह है कि-स्पर्शपरीक्षा चाहे हाथ से की जावे चाहे किसी यन्त्रविशेष के द्वारा की जावे उस का करना अत्यावश्यक है, क्योंकि रोगपरीक्षा का प्रधान कारण स्पर्शपरीक्षा है, अतः क्रम से स्पर्श परीक्षा के अंगों का वर्णन संक्षेप से किया जाता है: नाडीपरीक्षा-हृत्पिण्ड की गति के द्वारा हृदय में से खून बाहर धक्का खाकर धोरी नसों में जाता है, इस से उन नसों में खटका हुआ करता है और उन्हीं खटकों से खून का न्यूनाधिक होना तथा वेग से फिरना मालूम होता है, इसी को नाड़ीज्ञान कहते हैं, इस नाड़ीज्ञानसे रोग की भी कुछ परीक्षा हो सकती है, यद्यपि किसी भी धोरी नस के ऊपर अंगुली के रखने से नाड़ीपरीक्षा हो सकती है तथापि रोगका अधिक निश्चय करने के लिये हाथ के अंगूठे के नीचे नाड़ी को देखते हैं, हाथ के पहुँचे के आगे दो कठिन डोरी के समान नसें हैं, गोरी चमड़ीवाले तथा पतले शरीरवाले पुरुषों के ये रगे स्पष्ट दिखाई देती हैं, उन में से अंगूठे की तरफ की डोरी के समान जो नाड़ी है उसपर बाहर की तरफ हाथ की दो वा तीन अंगुलियों के रखने से अँगुली के नीचे खट २ होता हुआ शब्द मालूम पड़ता है, उन्हीं खटकों को नाड़ी का ठनाका तथा चाल कहते हैं, नाड़ी की इसी धीमी वा तेज़ चाल के द्वारा चतुर वैद्य अंगुलियां रखकर शरीर को गर्मी शर्दी रुधिर की गति तथा ज्वर आदि बातों का ज्ञान कर सकता है। नाड़ीपरीक्षा की साधारण रीति यह है कि-एक घड़ी को सामने रख कर एक हाथ से नाड़ी को देखना चाहिये अर्थात् हाथ की दो या तीन अंगुलियों को नाड़ीपर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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