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________________ ३३६ जैनसम्प्रदायशिक्षा । ५-कालकृत कारण-बाल्य, यौवन और वृद्धत्व (बुढ़ापा) आदि भिन्न २ अवस्थाओं में तथा छः ऋतुओं में जो २ वर्ताव करना चाहिये उस २ वर्ताव के न करने से अथवा विपरीत वर्ताव के करने से जो रोगोत्पत्ति के कारण होते हैं, उन्हें कालकृत कारण कहते हैं। ६-समुदायकृत कारण-मनुष्यों का भिन्न २ समुदाय एकत्रित होकर ऐरो नियमों को बांधे जो कि शरीर संरक्षण से विरुद्ध होकर रोगोत्पत्ति के कारण हों, इन्हें समुदायकृत कारण कहते हैं। ७-राज्यकृत कारण-राज्य के जो नियम और प्रबंध मनुष्यों की तासीर और जल वायु के विरुद्ध होकर रोगोत्पत्ति के कारण हों, इन्हें राज्यकृत कारण कहते हैं। ८-महा कारण-जिस से सब सृष्टि के जीव मृत्यु के भय में आ गिरें, इस प्रकार का कोई व्यवहार पैदा होकर रोगोत्पत्ति वा मृत्यु का कारण हो, इस प्रकार के कारण को महा कारण कहते हैं, अत्यन्त ही शोक का विषय है कि-यह कारग वर्तमान समय में प्रायः सर्व जातीयों में इस आर्यावर्त में देखा जाता है, जैसेदेखो! ब्रह्मचर्य और गर्भाधान आदि सोलह संस्कार आदि व्यवहार वर्तमान समय १-गृहस्थ धर्म के जो सोलह संस्कार हैं उन की विधि "आचारदिनकर" नामक संस्कृत ग्रथ में विस्तारपूर्वक लिखी है, उन संस्कारों के नाम ये हैं-गर्भाधान, पुंसवन, जन्म, नूयं चन्द्रदर्शन, क्षीराशन, पष्ठीपूजन, शुचिकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, कर्णवेध, केशवपन, उपनयन, विद्यार, विवाह, व्रतारोप और अन्तकर्म, इन सोलह संस्कारों की विधि बहुत बड़ी है अतः उस का वर्णन यहां पर नहीं किया जा सकता है, परन्तु पाठकों के ज्ञानार्थ हम यहां पर सिर्फ इतना ही लिखते हैं कि कौन २ सा संस्कार किस २ समय कराया जाता है-१ गर्भाधान-यह संस्कार गर्भ रहने के पहले किया जाता है। २-पुंसवन-संस्कार गर्भवती के तीसरे महीने में वा सीमंतके साथ आठवें महीने में कराया जाता है । ३-जन्म-यह संस्कार सन्तान के जन्म समय में कराया जाता है अर्थात् जन्म समय में योग्य ज्योतिषी को बुला कर सन्तान के जन्म ग्रहों को स्पष्ट कराना तथा उस ज्योतिषी को रुपया श्रीफल और मोहर आदि (जो कुछ देना उचित समझा जावे वा जैसी अनी श्रद्धा और शक्ति हो) देना । ४-सूर्यचन्द्रदर्शन-यह संस्कार जन्मदिन से दो दिन व्यतोत होने पर (तीसरे दिन) कराया जाता है । ५-क्षीराशन-यह संस्कार भी सूर्यचन्द्रदर्शन संस्कार के ही दिन अथवा उस के दूसरे दिन कराया जाता है, इस संस्कर में बालक को स्तनःनि कराया जाता है-(पहिले लिख चुके हैं कि-जन्मकाल से तीन दिन तक प्रस्ताबी का दूध विकार युक्त रहता है इस लिये उन दिनों में ओषधि के द्वारा अथवा गाय के दूध से बालकका रक्षण करना ठीक है किन्तु जो लोग इस में जल्दी करते हैं उन के बालकों के कई प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं, यह संस्कार भी हमारे उसी कथन की पुष्टि करता है ) 1६-ठीपजन-यह संस्कार जन्म से छठे दिन कराया जाता है। ७-याचिकर्म-यह संस्कार जन्मस्मय से दश दिन व्यतीत होने के बाद ( ग्यारहवें दिन) कराया जाता है । ८-नामकरण-यह संन्कार भी शुचिकर्म संस्कार के दिन ही कराया जाता है। ९-अन्नप्राशन-यह संस्कार लड़के का छ: महीने के बाद और लड़की का पांच महीने के वाद कराया जाता है। १०-कर्णवेध-यह संस्कार तीसरे, पाचवें वा सातवें वर्ष में कराया जाता है । ११-केशवपन-यह संस्कार यथोचित समय में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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