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________________ चतुर्थ अध्याय । ३३७ कराया जाता है, इस संस्कार में बालक के केश उतराये जाते हैं, इसे मुण्डनसंस्कार भी कहते हैं । १२- उपनयन- यह संस्कार आठ वर्ष की अवस्था के पीछे कराया जाता हैं । १३ विद्यारम्भ - यह संस्कार आठवें वर्ष में कराया जाता है । १४ - विवाह - यह संस्कार उस समय में कराया जाता है वा कराया जाना चाहिये जब कि स्त्री और पुरुष इस संस्कार के योग्य अवस्थावाले हो जावें, क्योंकि जैसे कच्चा फल खाने में स्वादिष्ठ नहीं लगता है तथा हानि भी करता है उसी प्रकार कच्ची अवस्था में विवाह का होना भी कुछ लाभ नहीं पहुँचाता है, प्रत्युत अनेक हानियों को करता है । १५ - व्रतारोप यह संस्कार वह है जिस में स्त्री पुरुष व्रत का ग्रहण करते हैं । १६ - अन्तकर्म - इस संस्कार का दूसरा नाम मृत्युसंस्कार भी है, क्योंकि यह संस्कार मृत्युसमय में किया जाता है, इस संस्कार के अन्त में जीवात्मा अपने किये हुए कर्मों के अनुसार अनेक योनियों को तथा नरक और स्वर्ग आदि को प्राप्त होता है, इस लिये मनुष्य को चाहिये कि अपनी जीवनावस्था में कर्मफल को विचार कर सदा शुभ कर्म ही करता रहे, देखो ! संसार में कोई भी ऐसा नहीं है जो मृत्यु से बचा हो, किन्तु इस (मृत्यु) ने अपने परम सहायक कर्म के योग से सब ही को अपने आधीन किया है, क्योंकि जितना आयुः कर्म यह जीवात्मा पूर्व भव से बांध लाया है उस का जो पूरा हो जाना है इसी का नाम मृत्यु है, यह आयु:कर्म अपने पुण्य और पाप के योग से सब ही के साथ बंधा है अर्थात् क्या राजा और क्या रंक, सब ही को अवश्य मरना हैं और मरने के पश्चात् इस जीवात्मा के साथ यहां से अपने किये हुए पाप और पुण्य के सिवाय कुछ भी नहीं जाता है अर्थात् संसार की सकल सामग्री यहीं पड़ी रह जाती है, देखो ! इस संसार में असंख्य राजे महाराजे और बादशाह आदि ऐश्वर्यपात्र हो गये परन्तु यह पृथ्वी और पृथ्वीस्थ पदार्थ किसी के साथ न गये, किन्तु केवल सब लोग अपनी २ कमाई का भोग कर रवाना हो गये, इसी तत्त्वज्ञानसम्बन्धिनी दात को यदि कोई अच्छे प्रकार सोच लेवे तो वह घमण्ड और परहानि आदि को कभी न करेगा तथा धीरे २ शुभ कर्मों के योग से उस पुण्य की वृद्धि होती जावेगी जिस से उस के गले भव भी सुधरते जायेंगे अर्थात् अगले भवों में वह सर्व सुखों से सम्पन्न होगा, परन्तु जो पुरुष इस तत्त्वसम्बन्धिनी बात को न सोच कर अशुभ कर्मों में प्रवृत्त रहेगा तो उन अशुभ कर्मों के योग से उस के पाप की वृद्धि होती जावेगी जिस से उस के अगले भव भी बिगड़ते जायेंगे अर्थात् अगले भवों में वह सर्व दुःखों से युक्त होगा, तात्पर्य यही है किमनुष्य के किये हुए पुण्य और पाप ही उस को उत्तम और अधम दशा में ले जाते हैं तथा संसार में जो २ न्यूनाधिकतायें तथा भिन्नतायें दीख पडती है वे सब इन्हीं के योग से होती हैं, देखा ! सब से अधिक बलवान् और ऐश्वर्यवान् बड़ा राजा चक्रवत्तीं होता है, उस की शक्ति इतनी होती है कि यदि तमाम संसार भी बदल जावे तो भी वह अकेला ही सब को सीधा ( क बूमें) कर सकता है, अर्थात् एक तरफ तमाम संसार का बल और एक तरफ उस अकेले चक्रवर्ती का वल होता है तो भी वह में कर लेता है, यह उस के पुण्य का ही प्रभाव है कहिये इतना बडा पद पुण्य के विना कौन पा सकता है ? तात्पर्य यही है कि जिस ने पूर्व भव में तप किया है, देव गुरु और धर्म की सेवा की है तथा परोपकार करके धर्म की बुद्धि का विस्तार किया है उसी को धर्मशता और राज्यपदवी मिल सकती है क्योंकि राज्य और सुख का मिलना पुण्य काही फल है, यदि मनुष्य पुण्य (धर्म) न करे तो उस के लिये दुःखागार ( दुःख का घर ) नरक गति तैयार है, आहा ! इस संसार की अनित्यता को तथा कर्मगति के चमत्कार को देखो कि जिन के घर में नव निधान और चौदह रल मौजूद थे, सोलह हजार देवते जिन के यहां नौकर थे, बत्तीस हजार मुकुटधारी राजे जिन को मुजरा करते थे, जिन के यहां खूब सूरत रानियां, कौतल घोड़े, हाथी, रथ, दीवान, नायबदीवान, डंका, निशान, चौघड़िये, ग्राम, नगर, बाग, बगीचे, राजधानी, रत्नों की खानें, सोना चांदी और लोहे की खानें, दास, दासी, नाटक मण्डली, पाकशास्त्र के ज्ञाता रसोइये, भिस्ती, तम्बोली, गोसमूह, खच्चर, हल, बन्दूकें, तोपें, २९ जे० सं० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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