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________________ चतुर्थ अध्याय। ३३५ इन्हीं विविध कारणों को पुनः दूसरे प्रकार से तीन प्रकार का बतलाया है जिद का वर्णन इस प्रकार है: २-स्वकृत-बहुत से रोग प्रत्येक मनुष्य के शरीर में अपनी ही भूलों से होते हैं, इस प्रकार के रोगों के कारणों को स्वकृत कहते हैं। २-परकृत-बहुत से रोग अपने पड़ोसी की, अपनी जाति की, अपने सम्बन्धी की अथवा अन्य किसी दूसरे मनुष्य की भूल से अपने शरीर में होते हैं, इस प्रकार के रोगों के कारणों को परकृत कहते हैं । ३-दैवकृत वा स्वभावजन्य-बहुत से रोग स्वाभाविक प्रकृति के परिवर्तन से शरीर में होते हैं, जैसे-ऋतु के परिवर्तन से हवा और मनुष्यों की प्रकृति में विकार होकर रोगों का उत्पन्न होना आदि, इस प्रकार के रोगों के कारणों को देवकृत अथवा स्वभावजन्य कहते हैं। यद्यपि रोग के कारणों के ये तीन भेद ऊपर कहे गये हैं परन्तु वास्तव में तो मनुष्यकृत और दैवकृत ये दो ही भेद हो सकते हैं, क्योंकि रोगों के सब ही कारण इन दोनों भेदों में अन्तर्गत हो सकते हैं, इन दोनों प्रकार के कारणों में से मनुष्यकृत कारण उन्हें कहते हैं कि-जो कारण प्रत्येक आदमी अथवा आदमियों के समुदाय के द्वारा मिल कर बांधे हुए व्यवहारों से उत्पन्न होते हैं, इन मनुष्यकर कारणों के भेद संक्षेप से इस प्रकार हो सकते हैं: -प्रत्येक मनुष्यकृत कारण-प्रत्येक मनुष्य अपनी भूल से, आहार विहार की अपरिमाणता से और नियमों के उलंघन करने से जिन रोग वा मृत्यु को प्राप्त होने के कारणों को उत्पन्न करे, इन को प्रत्येक मनुष्यकृत कारण कहते हैं । २-कुटुम्बकृत कारण-कुटुम्ब में प्रचलित विरुद्ध व्यवहारों से तथा निकृष्ट आचारों से जो रोगोत्पत्ति के कारण होते हैं, इन को कुटुम्बकृत कारण कहते हैं। ३-जातिकृतकारण-निकृष्ट प्रथा से तथा जाति के खोटे व्यवहारों से जो रोगोत्पत्ति के कारण होते हैं, इन्हें जातिकृत कारण कहते हैं, देखो ! बहुत सी जातेयों में बालविवाह आदि कैसी २ कुरीतियां प्रचलित हैं, ये सब रोगोत्पत्ति के दूरवर्ती कारण हैं, इसी प्रकार बोहरे आदि कई एक जातियों में बुरखे (पड़दा विशेष) का प्रचार है जिस से उन जातियों की स्त्रियां निर्बल और रोगिणी हो जाती हैं, इत्यादि रोगोत्पत्ति के अनेक जातिकृत कारण हैं जिन का वर्णन ग्रन्थविस्तारभय से नहीं करते हैं। 3-देशकृत कारण-बहुत से देशों की आव हबा (जल और वायु) के प्रतिकूल होने से अथवा वहां के निवासियों की प्रकृति के अनुकूल न होने से जो रोगोत्पत्ति के कारण होते हैं, इन्हें देशकृत कारण कहते हैं। १-इस का अनुभव बहुत पुरुषों को हुआ ही होगा कि-अनेक कुटुम्बों में बड़े २ व्यसनों और दुराचारों के होने से उन कुटुम्बों के लोग रोगी बन जाते हैं ॥ २-जिन कारणों से पुरुषजाति तथा स्त्रीजाति की पृथक् २ हानि होती है वे भी (कारण) इन्हीं कारणों के अन्तर्गत हैं ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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