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________________ चतुर्थ अध्याय । ३११ आया करते हैं अर्थात् पक्की नींद का नाश होता है, क्योंकि मनुष्य को स्वम तब ही आते हैं जब कि उस के मगज़ में आल जंजाल रहते हैं और मगज़ को पूरा विश्राम नहीं मिलता है इसलिये मनुष्यमात्र को उचित है कि अपनी शक्ति के अनुसार शारीरिक तथा मानसिक परिश्रमों को करे और अपने आहार विहार को भी अपनी प्रकृति तथा देश काल आदि का विचार कर करता रहे जिस से निद्रा में विघात न होवे, क्योंकि निद्रा के विधात से भी कालान्तर में अनेक भयंकर हानियां होती है निद्रा में विघात न होने अर्थात् ठीक नींद आने का लक्षण यही है कि मनुष्य को शयनावस्था में स्वप्न न आवे क्योंकि स्वमदशा में चित्त की स्थिरता नहीं होती है किन्तु चञ्चलता रहती है । स्वप्नों के विषय में अर्थात् किस प्रकार का स्वप्न कब आता है और क्यों आता है इस विषय में भिन्न २ शास्त्रों तथा भिन्न २ आचार्यों की भिन्न २ सम्मति है एवं स्वप्नों के फल के विषय में भी पृथक् २ सम्मति है, इन के विषय का प्रतिपादक एक स्वशाख भी है जिस में स्वप्नों का शुभाशुभ आदि बहुतसा फल लिखा है, उक्त शास्त्र के अनुसार वैद्यक ग्रन्थों में भी स्वप्नों का शुभाशुभ फल माना है, देखो ! वागभट्ट ने रोगप्रकरण में शकुन और स्वप्नों का फल एक अलग प्रकरण में रोग के साध्यासाध्य के जानने के लिये लिखा है, उस विषय को ग्रन्थ के बढ़ जाने के भय से अधिक नहीं लिख सकते हैं, परन्तु प्रसंगवश पाठकों के ज्ञानार्थ संक्षेप से इसका वर्णन करते हैं: स्वमविचार | १- अनुभूत वस्तु का जो स्वप्न आता है, उसे असत्य समझना चाहिये अर्थात् उस का कुछ फल नहीं होता है । २ - सुनी हुई बात का भी स्वप्न असत्य ही होता है । ३- देखी हुई वस्तु का जो स्वप्न आता है वह भी असत्य है । ४ - शोक और चिन्ता से आया हुआ भी स्वप्न असत्य होता है । ५- प्रकृति के विकार से भी स्वम आता है जैसे-पित्त प्रकृतिवाला मनुष्य पानी, फूल, अन्न, भोजन और रत्नों को स्वप्न में देखता है तथा हरे पीले और लाल रंग की वस्तुओं को अधिक देखता है, तमाम रात सैकड़ों बाग बगीचों और फुहारों की और करता रहता है, परन्तु इसे भी असत्य समझना चाहिये, क्योंकि प्रकृति के विकार से उत्पन्न होने के कारण यह कुछ भी लाभ और हानि को नहीं कर सकता है। ६ - वायु की प्रकृतिवाला मनुष्य स्वप्न में पहाड़ पर चढ़ता है, वृक्षों के शिखर पर जा बैठता है और मकान के ठीक ऊपर जाकर सरक जाता है, कूदना, फांदना, १ - निद्राविघातजन्य हानियों का वर्णन अनेक ग्रन्थों में किया गया है इस लिये यहां पर उन हानियों का वर्णन नहीं करते हैं ।॥ २ - इस शास्त्र को निमित्तशास्त्र कहते हैं ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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