SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१० जैनसम्प्रदायशिक्षा। मुखसुगन्धि की सब चीजों में से धनियां और सोंफ, ये दो चीजें अधिक लाभदायक मानी गई हैं, क्योंकि ये दीपन पाचन हैं, स्वादिष्ट हैं, कंठ को सुधारती हैं और किसी प्रकार का विकार नहीं करती हैं ! - इसप्रकार भोजन क्रिया से निवृत्त होकर तथा थोड़ी देर तक विना निद्रा के विश्राम लेकर मनुष्य को अपने जीवन निर्वाह के उद्यम में प्रवृत्त होना चाहिये, परन्तु वह उद्यम भी न्याय और धर्म के अनुकूल होना चाहिये अर्थात् उस उद्यम के द्वारा परापमान तथा परहानि आदि कभी नहीं होना चाहिये, इस के सिव य मनुष्य को दिन भर में क्रोध आदि दुर्गुणों का त्याग कर मन और इन्द्रियों को प्रसन्न करनेवाले रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि विषयों का सेवन करना चाहिये, दिन में कदापि स्त्री सेवन नहीं करना चाहिये, दिन के चार वा पांच बजे (ऋतु के अनुसार) व्यावहारिक कार्यों से निवृत्त होकर थोड़ी देर तक विश्रम लेकर शौच आदि से निवृत्त हो जावे, पीछे यथायोग्य भोजन आदि कार्य करे भोजन के पश्चात् मील दो मील तक ( समयानुसार) वायु सेवन के लिये अव च जावे, वाई के सेवन से लौट कर सायंकाल सम्बधी यथावश्यक धर्म ध्यान आदि कार्य करे, इस से निवृत्त होने के पश्चात् दिनचर्या का कोई कार्य अवशिष्ट नहीं रहता है किन्तु केवल निद्रारूप कार्य शेष रहता है। जीवन की स्थिरता तथा नीरोगता के लिये निद्रा भी एक बहुत ही आवश् क पदार्थ है इस लिये अब निद्रा वा शयन के विषय में लिखतेहैं: शयन वा निद्रा। मनुष्य की आरोग्यता के लिये अच्छी तरह से नींद का आना भी एक मुग्य कारण है परन्तु अच्छी तरह से नींद के आने का सहज उपाय केवल परिश्रम है, देखो ! जो लोग दिन में परिश्रम नहीं करते हैं किन्तु आलसी होकर पड़े रहते हैं उन को रात्रि में अच्छी तरह से नींद नहीं आती है, इस के अतिरिक्त परिचित तथा प्रकृति के अनुकूल आहार विहार से भी नींदका घनिष्ट (बहुत बड़ ) सम्बन्ध है, देखो ! जो लोग शाम को अधिक भोजन करते हैं उन को प्रायः मन १-इन दोनों के सिवाय जो मुख सुगन्धि के लिये दूसरी चीजों का सेवन किया जाता है न में देश काल और प्रकृति के विचार से कुछ न कुछ दोष अवश्य रहता है, उन में भी तम आदि कई पदार्थ तो महाहानिकारक हैं, इस लिये उन से अवश्य बचना चाहिये, हां अवश्यक हो तो ऊपर लिखे सुपारी आदि पदार्थों का उपयोग अपनी प्रकृति और देश काल आदि न विचार कर अल्प मात्रा में कर लेना चाहिये ॥२-मन और इन्द्रियों को प्रसन्न करनेवाले रूपा दे विषयों के सेवन से भोजन का परिपाक ठीक होने से आरोग्यता बनी रहती है ।। ३-दिन में भी सेवन से आयु घटती है तथा बुद्धि मलिन हो जाती है ॥ ४-शौच आदि में प्राःतकाल के लिये कहे हुए नियमों का ही सेवन करे ॥५-रात्रिभोजन का निध तो अभी लिख ही चुके हैं. ।। ६-इस कार्य का मुख्य सम्बन्ध रात्रिचर्या से है किन्नु रात्रिचारूप यही कार्य है परन्तु यहां रात्रिचर्या को पृथक न लिखकर दिनचर्या में ही उस का समावेश कर दिया गया है ।। ७-न सिद्धान्त में खभावलिद्ध दर्शनावरणी कर्नजन्य नींद को अच्छि नींद माना है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy