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________________ जैनसम्प्रदायशिक्षा | मिश्रवर्ग | दाल और शाक के मसाले -कुसंग दोष तथा अविद्या से ज्यों २ प्राणियों की विषयवासना बढ़ती गई होंवै त्यों २ उस ( विषयवासना ) को शान्त करने के लिये धातुपुष्टि तथा वीर्यस्तम्भन की औषधों का अन्वेषण करते हुए मूर्ख वैद्यों आदि के पक्ष में फँस कर अनेक हानिकारक तथा परिणाम में दुःखदायक पधों का ग्रहण कर मन माने उलटे सीधेमार्ग पर चलने लगे, यह व्यवहार यहांतक बढ़ा और बढ़ता जाता है कि लोग मद्य, अफीम, भांग, माजूम, गाँजा और चरस आदि अनेक महाहानिकारक विषैली चीजों को खाने लगे और खाते जाते हैं, परन्तु विचार कर देखा जाये तो यह सब व्यवहार जीवन की खराबी का ही चिह्न है । २४२ ऊपर कहे हुए पदार्थों के सिवाय लोगों ने उसी आशा से प्रतिदिन की खुराक में भी कई प्रकार के उत्तेजक स्वादिष्ट मसालों का भी अत्यन्त सेवन करना आरम्भ कर दिया कि जिस से भी अनेक प्रकार की हानियां होचुकी हैं तथा होती जाती हैं । प्राचीन समय के विचारवाले लोग कहते हैं कि जगत् के दार्त्तमानिक सुधार और कला कौशल्य ने लोगों को दुर्बल, निःसत्व और बिलकुल गरीब कर ड ला है, देशान्तर के लोग द्रव्य लिये जा रहे हैं, प्राणियों का शारीरिक बल अत्यंत घट गया, इत्यादि विचार कर देखने से यह बात सत्य भी मालूम होती है । वर्त्तमान समय के खानपान की तरफ ही दृष्टि डाल कर देखो कि खानपान में स्वादिष्टता का विचार और बेहद शौकीनपन आदि कितनी खराबियों को कर रहा है और कर चुका है, यद्यपि प्राचीन विद्वानों तथा आधुनिक वैद्य और डाक्टरों ने भी साधारण खुराक की प्रशंसा की है परन्तु उन के कथन पर बहुत ही कमलोगों का ध्यान है, देखो ! मनुष्यों की प्रतिदिन की साधारण खुराक यही है कि- चावल, घी, गेहूँ, बाजरी और ज्वार आदि की रोटी, मूंग, मोठ और अरहर आदे की दाल, सामान्य और उपयोगी शाक तथा धनियां, हल्दी, जीरा और नमक आदि मसाले, इन सब पदार्थों का परिमित उपयोग किया जावे, परन्तु व्यसन स्वाद और शौक थोड़ा सा सहारा मिलने से बेहद बढ़ कर परिणाम में अनेक ज्ञानियों को करते हैं अर्थात् व्यसनी और शौकीन को सब तरह से नष्ट भ्रष्ट कर देते हैं, देखो | इन से चार बातों की हानि तो प्रत्यक्ष ही दीखती है अर्थात् धन का नाश होता है, शरीर बिगड़ता है, प्रतिष्ठा जाती रहती है, और अमूल्य समय नष्ट होता है । उक्त व्यसन स्वाद और शौक वर्त्तमान समय में मसालों के सेवन में भी अत्यन्त बढे हुए हैं अर्थात् लोग दाल और शाक आदि में वेपरिमाण मसाले डाल कर १ - जब नैत्यिक तथा सामान्य खानपान में अत्यन्त शौकीनी बढ़ रही है तो भला नमित्तिक तथा विशेष व्यवहारों में तो कहना ही क्या है || Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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