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________________ चतुर्थ अध्याय । २४१ रेह का नमक-क्षारगुण युक्त, भारी कटु, स्निग्ध, शीतल और वायुनाशक है । कचिया नमक-रुचिकारी, कुछ खारा, पित्तकर्ता, दाहकारी, कफवातनाशक, दीपन, गुल्मनाशक तथा शूलहर्ता है। द्रोणी नमक-पाक में कमगर्म, कमदाहकारी, भेदन, कुछ स्निग्ध, शूलनाशक तथा अल्प पित्तकर्ता है। औषर नमक-खारी, कडुआ, वातकफनाशक, दाहकर्ता, पित्तकारी, ग्राही तथा मूत्रशोषक (मूत्र का सुखानेवाला) है। चनाखार-अत्यन्त उष्ण, अग्निदीपक तथा दाँतों में हर्ष करनेवाला है, इस का स्वाद खट्टा और नमकीन है तथा यह शूल अजीर्ण और विबन्ध को नष्ट जवाखार-हलका, स्निग्ध, अतिसूक्ष्म तथा अग्निदीपक है, यह शूल, वादी, आमकफ, श्वास, गुल्म, गलेका रोग, पाण्डुरोग, बवासीर, संग्रहणी, अफरा, प्लीहा और हृदयरोग को दूर करता है। खजीखार-सज्जीखार जवाखार की अपेक्षा अल्प गुणवाला है, परन्तु शूल, और गुल्मरोग में अधिक गुण करता है। मोरों-इस में प्रायः सज्जी के समान गुण हैं, परन्तु इस में इतनी विशेषता है कि यह मूत्रकृच्छ्र को दूर करता है, तथा जल को शीतल करता है । नौसादर-यह भी एक प्रकार का तीव्र खार है तथा इस में खारों के समान ही प्रायः सब गुण हैं। मुहागा-अग्निकर्ता, रूक्ष, कफनाशक, वातपित्तकर्ता, कासनाशक, बलवर्धक, स्त्रियों के पुष्प को प्रकट करनेवाला, वणनाशक, रेचक तथा मूढ़ गर्भ को निकालनेवाल है। १- यह नमक खारी जमीन में से स्वयं ही प्रकट होता है ।। २-यह नमक खार लगाने से मिट्टी के बर्तनों में प्रकट होता है ।। ३-यह नमक ऊषर भूमि में उत्पन्न होता है ॥ ४-सज्जी भी एक प्रकारका खार ही है, इस को संस्कृत में सर्जिका, कापोत और सुखवर्चक कहते हैं ।। ५-यह भी सब्जी का ही एक मेद है ॥६-ऊंट, भैंस अथवा गांव के गोवर की भस्म को पाकविधि के साथ पचाने से नौसादर प्रकट होता है, परन्तु एक नौसादर मनुष्य और शूकर की विष्ठा के द्वारा पजाबे में से निकलता है ।। ७-जहां क्षारद्वय कहे गये हैं वहां सज्जीखार और जवाखार लेने चाहियें, इन में सुहागा के मिलने से क्षारत्रय कहाते हैं, ये मिले हुए भी अपने २ गुण को करते , किन्तु मिलने से गुल्मरोग को शीघ्र ही नष्ट करते हैं, पलाश, थूहर, ओंगा (चिरचिरा), इमली, आक और तिलनालका खार तथा सज्जीखार और जवाखार ये आठों मिलने से क्षाराष्टक कहलाते हैं ये आठों खार अग्नि के तुल्य दाहक हैं तथा शूल और गुल्मरोग को समूल नष्ट करते हैं। . २१ जै० सं० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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