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________________ १८४ जैनसम्प्रदायशिक्षा। होगी, देखो ! चलने, बोलने और बांचने आदि कार्यों में तथा आंख मटकाने आदि छोटी से छोटी क्रियाओंतक में भी शरीर के परमाणु प्रतिसमय झरते हैं (खर्च होते हैं) तथा उन के स्थान में नये परमाणु आते जाते हैं, इस विषय में विद्वानों ने गणना कर यह भी निश्चय किया है कि-प्रति सप्ताब्दी में (सात २ वर्षों में) शरीर का पूरा ढांचा नया ही तैयार होता है अर्थात् पूर्व समय में (सात वर्ष पहिले) शरीर में जो हाड़ मांस और खून आदि पदार्थ थे वे सव झरते २ झर जाते हैं और उन के स्थान में क्रम २ से आनेवाले गये २ परमाणुओं से शरीर का वह भाग नया ही बन जाता है, सांप को अपनी केचुली गिराते हुए तो सब मनुष्यों ने प्रायः देखा ही होगा परन्तु वह तो बहुत समय के पश्चात् अपनी केंचुली छोड़ता है परन्तु मनुष्य आदि सर्व जीवगण तो प्रतिसमय अपनी २ केंचुली गिराते हैं और नई धारण करते हैं (प्रति समय पुराने परमाणुओं छोड़ते जाते हैं और नये परमाणुओं का ग्रहण करते जाते हैं), इससे सिद्ध हुआ कि-शरीरमें से प्रतिसमय एक बड़ा परमाणुसमूह नाशक प्राप्त होता जाता है तथा उसके स्थान में नया भरती होता जाता है अर्थात् प्रति समय शरीर के छिद्र मलाशय मूत्राशय और श्वास आदि के द्वारा शरीर का प्राचीन भाग नष्ट होकर नवीन भाग बनता जाता है, देखो ! हम लोग इस बात को प्रत्यक्ष भी देखते और अनुभव करते हैं कि-प्राचीन नख तथा बाल गिरते जाते हैं और उन के स्थान में दूसरे आते जाते हैं, इसपर यदि कोई यह शंक' करे कि-नख और बालों के समान शरीर के दूसरे परमाणु गिरते हुए तथा उन के स्थानमें दूसरे आते हुए क्यों नहीं दीखते हैं ? तो इसका उत्तर यह है कि-शरीर में से जो लाखों रजःकण उड़ते हैं और उन के स्थान में दूसरे आते हैं वे अत्यन्त सूक्ष्म हैं इसलिये वे दृष्टिगत नहीं हो सकते हैं, हां अनुमान के द्वारा वे अवश्य जाने जा सकते हैं और वह अनुमान यही है कि-प्रतिसमय में नष्ट होनेवाले प्राचीन परमाणुओं के स्थान में यदि नवीन परमाणु भरती न होते तो प्राप्त सूख कर शीघ्र ही मर जाता, देखो! जब क्षय आदि रोगों में शरीर का विशेष भाग नष्ट होता है तथा उस के स्थान में बहुत ही थोड़ा भाग बनता है तब थोड़े समय के पश्चात् मनुष्य मर ही जाते हैं। देखो! उत्पत्ति स्थिति और नाश का होना सृष्टि का स्वाभाविक नियम ही है उसी नियम का क्रम अपने शरीर में भी सदा होता रहता है, इस (निया) को ध्यान में लाने से प्रवाहद्वारा सृष्टि की नित्यानित्यता भी समझ में आ जाती है, अस्तु। उक्त नियम के अनुसार शरीर के प्राचीन हुए हुए भाग जब वृद्ध मनुष्य के समान अपना काम नहीं कर सकते हैं तब वे नष्ट हो जाते हैं और उन के स्थान १-इसी लिये जैनसूत्रकार शरीर को पुद्गल कहते हैं ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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