SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्याय । चतुर्थ- प्रकरण । १८३ आहार वर्णन 1 खुराक की आवश्यकता । मनुष्य का शरीर एक चलते हुए यत्र के सदृश है तथा एञ्जिन का दृष्टान्त इस पर ठीक रीति से घटता है, देखो। जिस प्रकार एञ्जिन के चलने के लिये लकड़ी हवा और पानी की आवश्यकता होती है उसी प्रकार से शरीररूपी एञ्जिन के चलने के लिये खुराक पानी और हवा की आवश्यकता है, जैसे एञ्जिनको हांकनेवाला वैतनिक ( वेतन पानेवाला ) ड्राइवर होता है उसी प्रकार मनुष्य के शरीर में कर्म बद्ध और स्वभाव शक्ति सिद्ध जीव उस (शरीर ) का चलाने वाले है, जैसे-एञ्जिन की बिगड़ी हुई कलों को कारीगर सुधारते हैं उसी प्रकार वैद्य और डाक्टर शरीर की बिगड़ी हुई कलों के सुधारनेवाले हैं, जैसे एजिन अपनी क्रिया में प्रवृत्त रहता है अर्थात् लकड़ी हवा और पानी को पाकर उन के सार भाग का ग्रहण कर लेता है और सार भाग का ग्रहण कर धुआँ तथा राख आदि निकम्मे पदार्थों को बाहर फेंक देता है उसी प्रकार यह शरीर भी अपनी क्रिया में प्रवृत्त रहकर चमड़ी, फेफड़ा, मलाशय और मूत्राशय आदि द्वारा पसीना मल तथा पेशाव आदि निरर्थक पदार्थों को बाहर फेंक सं देता है. हां एञ्जिन से इतनी विशेषता शरीर में अवश्य है कि एञ्जिन तो जिन लकड़ी हवा और पानी का ग्रहण कर तथा उन के सार भाग का ग्रहण कर चलता है वे लकड़ी आदि पदार्थ एञ्जिन से पृथक्रूप में ही रहते हैं अर्थात् वे एञ्जिनरूप नहीं बन जाते हैं परन्तु यह शरीर जिन खुराक आदि पदार्थों (खुराक हवा और पानी ) को ग्रहण करता है उन को वह अपने स्वरूप में कर लेता है। अर्थात् खुराक आदि पदार्थ क्षय को प्राप्त होने से पहिले ही शरीर के संग मिल जाते हैं अर्थात् उन वस्तुओं का पोषणकारक भाग शरीर में मिल जाता है और निरर्थक भाग ऊपर लिखे मार्गों से बाहर निकल जाता है, यह भी समझ लेना आवश्यक है कि - मल मूत्र तथा पसीने के रूप में जो पदार्थ शरीर में से जाता है वह शरीर का क्षय कहलाता है और यह हमेशा होता रहता है, इस लिये इस क्षय का बढ़ला खुराक हवा और पानी है अर्थात् खुराक आदि से क्ष की पूर्ति होती है, देखो । प्राणी ज्यों २ महनत का काम अधिक करता है त्यों २ पसीने आदि के द्वारा शरीर का अधिक क्षय होता है और ज्यों २ अधिक क्षय होगा त्यों २ उस को पोषणकारक पदार्थों की अधिक आवश्यकता १-खुक में खाने और पीने के पदार्थों का समावेश होता है । २ - इसलिये बाहर की गति की उसको आवश्यकता नहीं है ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy