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________________ चतुर्थ अध्याय । १८५ में नये पर्याय लगजाते हैं यही कुदरती नियम है और इसी नियम को अमल में लाने के लिये स्वाभाविक नियम से ही क्षुधावेदनी कर्म अर्थात् भूख नामक नूत है जो कि समयानुसार शरीर के भागों की अपूर्णता को पूरी करने के लिये अन्न और पानी की याचना करता है, यदि उस की बात पर ध्यान न देकर उसकी इस याचना का अनादर कर दिया जावे अथवा याचनाकी पूर्ति में विलम्ब किया जावे तो उस का सहायक अशात नामक वेदनी कर्म अपना बल दिखा कर उस प्राणी के नाश को अथवा अधिक परमाणुओं के विखेरने को कर देता है, जिसको कोई नहीं रोक सकता है, वीमारी का हो जाना उस वेदनी कर्म का प्रत्यक्ष प्रमाण है, क्योंकि शरीर के जितने रजःकण नाश को प्राप्त होते हैं उतने ही रजःकणों की पूर्ति न होने से व्याधि हो जाती है, जैसे- दीपक के पोषण के लिये जितने तेल की आवश्यकता है यदि उतना तेल न डाला जावे तो दीपक बुझ जाता है, इसी प्रकार शरीर के परमाणु भागों के नाश के द्वारा कमी को पूरा करने के लिये कुछ बाहरी तत्त्वों की आवश्यकता होती है, इन्हीं तत्त्वों का नाम पोषण भोजन अथवा खुराक है । शरीर के पोषण के लिये खुराख की बहुत ही आवश्यकता है परन्तु यदि वही खुराक मात्रा अधिक अथवा प्रकृति के विरुद्ध ली जावे तो रोगों को उत्पन्न करनेबाली हो जाती है, किन्तु यह भी स्मरण रखना चाहिये कि खुराक की मात्रा आदि का नियम सब के लिये एक नहीं हो सकता है, क्योंकि खुराककी मात्रा आदि घर के कद, बन्धान, प्रकृति और व्यायाम अथवा श्रम आदि पर निर्भर है, इसलिये यद्यपि प्रत्येक मनुष्य अपनी खुराक की मात्रा आदि का निश्चय और नियम जैसा खुद कर सकता है वैसा निश्चय और नियम उस के लिये दूसरा कदापि नहीं कर सकता है तथापि अज्ञान और साधारण मनुष्यों को वारंवार दूसरे चतुर मनुष्यों की इस विषय में भी सलाह लेने की आवश्यकता पड़ती है, हां वेशक उचित तो यही है कि प्रत्येक मनुष्य अपनी खुराक आदि का खुद ही निश्चय और नियम करे, क्योंकि - सर्व साधारण के लिये यही नियमभदायक है कि प्रत्येक मनुष्य अपनी नियमित खुराक का कोई परिमाण अर्थात् मात्रा आदि का हिसाव स्वयमेव निर्धारितकर उसीके अनुसार खुराक लेने का अभ्यास रक्खे । शरीर के पोषण के लिये प्रतिदिन कम से कम ४० रुपये भर खुराक की आवश्यकता है और अधिक से अधिक ८० से १०० रुपये भर तक समझना चाहिये । यह भी स्मरण रहे कि यह कुछ नियम नहीं है कि कम खुराक खानेवाले लोग शरीर से रोगी और दुर्बल रहते हों और अधिक खुराक खानेवाले नीरोग १ इस वषय में वैद्य तथा डाक्टर चतुर मनुष्य कहे जा सकते हैं ॥। २ परन्तु मथुरा के चौबे, पहलवान तथा कई एक दूसरे भी परिमाणरहित खुराक को खानेवाले लोगों के लिये यह नियम नहीं हो सकता है, क्योंकि उनकी खुराक अनियमित होती है || Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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