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________________ १६४ जैनसम्प्रदायशिक्षा। यदि कुछ मन को वह हवा अच्छी न लगे अर्थात् मन को अच्छी न लगनेवाली कुछ दुर्गन्धिसी मालूम पड़े तो समझ लेना चाहिये कि-घर के भीतर की हवा चाहिये जैसी शुद्ध नहीं है; शुद्ध वातावरण की हवा के १००० भागों में , भाग कार्बोनिक एसिड ग्यस का है; यदि घर की हवा में यह परिमाण कुछ अधिक भी हो अर्थात् . तक हो तब तक आरोग्यता को हानि नहीं पहुंचती है, परन्तु यदि इस परिमाण से एक अथवा इस से भी विशेष भाग बढ़ जावे तो उस हव वाले मकान में रहनेवाले मनुष्यों को हानि पहुँचती है, इस हानिकारक हवा का अनुमान बाहर से घर में आने पर मन को अच्छी न लगनेवाली दुर्गन्धि आहे के द्वारा ही हो सकता है। यह चतुर्थ अध्याय का वायुवर्णन नामक द्वितीय प्रकरण समाप्त हुआ ॥ तृतीय प्रकरण । जल वर्णन-पानी की आवश्यकता। जीवन को कायम रखने के लिये आवश्यक वस्तुओं में से दूसरी वस्तु पानी है, वह पानी जीवन के लिये अपने उसी प्रवाही रूप में आवश्यक है यह नहीं समझना चाहिये किन्तु-खाने पीने आदि के दूसरे पदार्थों में भी पानी के तत्त्व रहा करते हैं जो कि पानी की आवश्यकता को पूरा करते हैं, इस से यह बात और भी प्रमाणित होती है कि जीवन के लिये पानी बहुत ही आवश्यक वस्तु है, देवो ! छोटे बालकों का केवल दूध से ही पोषण होता है वह केवल इसी लिये होता है कि-दूध में भी पानी का अधिक भाग है, केवल यही कारण है कि-दूधसे पोषण पानेवाले उन छोटे बालकों को पानी की आवश्यकता नहीं रहती है, इस के सिवाय अपने शरीर में स्थित रस रक्त और मांस आदि धातुओं में भी मुख्य भाग पानी का है, देखो ! मनुष्य के शरीरका सरासरी बज़न यदि ७५ सेर गिना जावे तो उस में ५६ सेर के करीब पानी अर्थात् प्रवाही तत्त्व माना जायगा, इसी कार जिस धान्य और वनस्पति से अपने शरीर का पोषण होता है वह भी पानी से ही पका करती है, देखो! मलिनता बहुत से रोगों का कारण है और उस मलिनता को दूर करने के लिये भी सर्वोत्तम साधन पानी है । पानी की अमूल्यता तथा उस की पूरी कदर तब ही मालूम होती है वि-जब आवश्यकता होने पर उस की प्राप्ति न होवे, देखो ! जब मनुष्य को प्यास लगती है तथा थोड़ी देर तक पानी नहीं मिलता है तो पानी के विना उस के प्राण तड़फने लगते हैं और फिर भी कुछसमय तक यदि पानी न मिले तो प्राण चले जाते हैं, पानी के विना प्राण किस तरहसे चले जाते हैं ? इसके विषय में यह समझना चाहिये कि-शरीर के सब अवयवोंका पोषण प्रवाही रस से ही होता है, जसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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