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________________ १२४ जैनसम्प्रदायशिक्षा | १- नाल—गर्भस्थान में बालक का पोषण नाल से ही होता है, जब बालक उत्पन्न होता है तब उस नालका एक सिरा ( छोर वा किनारा ) मीतर ओरतक लगा हुआ होता है इसलिये नाल को नाभिसे ढाई वा तीन इञ्च के अनन्तर (फासले) पर चारों तरफ से मुलायम कपड़े या रुई से लपेट कर एक मज़बूत डोरीसे कस कर बांध लेना चाहिये फिर ओर तरफ का नाल का सिरा काट देना चाहिये; अब जो ढाई बा तीन इञ्चका नालका टुकड़ा शेष रहा उस को पेट पर रखकर उस पर मुलायम कपड़े की एक पट्टी बांध लेना चाहिये - क्योंकि मुलायम कपड़े की पट्टी बांध लेने से नाल की ठीक रक्षा (हिफाज़त ) रहती है और वह पट्टी पेटपर रहती है इस लिये पेट में वायु भी नहीं बढ़ने पाता है तथा पेट को उस पट्टी से सहारा भी मिलता है, नाल के चारों तरफ कपड़ा लपेट कर जो डोरी बांधी जाती है उस का प्रयोजन यह है कि-बालक के शरीर में जो रुधिर घूमता है वह नालके द्वारा बाहर नहीं निकलने पाता है, क्योंकि डोरी बांधदेने से उस का बाहर निकलने से अवरोध ( रुकावट ) हो जाता है- क्योंकि रुधिर जो है वही बालक का प्राणरूप है, यदि वह ( रुधिर ) बाहर निकल जावे तो बालक शीघ्र ही मर जावे, यदि कभी धोखे से नाल ढीला बंधा रह जावे और रुधिर कुछ बाहर निकलता हुआ मालूम होवे तो शीघ्र ही युक्ति से मुलायम हाथ से उस ढोरी को कसकर बांध देना चाहिये, यदि नाल पर चोट लगने से कदाचित् afar निकलता होवे तो उस के ऊपर कत्थे का बारीक चूर्ण अथवा चने का आटा बुरका देना चाहिये अथवा रुधिर निकलने के स्थान पर मकड़ी का जाला दाब देने से भी रुधिर का निकलना बंद हो जाता है । बहुत से लोग नाल को बांध कर उस की डोरी को बालक के गले में रक्खा करते हैं परन्तु ऐसा करना ठीक नहीं है- क्योंकि ऐसा करने से कभी २ उस में बालक का हाथ इधर उधर होने में फँस जाता है तो उस को बहुत ही पीड़ा हो जाती है, उस का हाथ पक जाता है वा गिर पड़ता है और उस से कभी २ बालक मर भी जाता है, इस लिये गले में डोरी नहीं रखनी चाहिये किन्तु पेटपर नाल को पट्टी से ही बांधना उत्तम होता है । नाल अपने आप ही पांच सात दिन में अथवा पांच सात दिन के बाद दो तीन दिन में ही गिर पड़ता है इसलिये उस को खींच कर नहीं निकालना चाहिये, जब तक वह नाल अपने आप ही न गिर पड़े तबतक उस को वैसा ही रहने देना चाहिये, यदि नाल कदाचित् पक जावे तो उस पर कलई ( सफेदा ) लगा देना चाहिये, यदि नालपर शोथ ( सूजन ) होवे तो अफीम को तेल में घिस कर उसपर लगा देना चाहिये तथा उसपर अफीम के डोड़े का सेक भी करना चाहिये । २- स्नान - ऊपर कही हुई रीति के अनुसार नाल का छेदन करने के पश्चात् यदि ठंढ हो तो बालक को फलालेन बनात अथवा कम्बल आदि गर्म कपड़े पर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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