________________
कीमती तथा विशेष स्वच्छ है फिर भी लोहे का [शुद्ध लोहे का] होने के कारण जिनेन्द्र पूजन तथा मुनि आहार दान के समय बरतने योग्य नहीं है।
अतिथि
अतिथियों को लौकिक कार्यों से कोई प्रयोजन नहीं रहता। वे आत्मध्यान रत ही रहते हैं । उनको जो भोजन दिया जावे वह शुद्ध मर्यादित अपने कुटुम्ब के लिए बनाया गया हो उसमें से ही दिया जावे इसी का नाम अतिथि संविभाग व्रत है । मुनि के भोजन के लिए खास तौर पर आरम्भ नहीं करना चाहिये । मुनियों को आहारदान करने से गृहस्थ को जो भोजन बनाने में प्रारम्भिक हिंसा लगती है, उससे उत्पन्न पाप नाश होता है।
. आहार दान देने की विधि
रसोई- मर्यादा युक्त शुद्ध भोजन पदार्थ बनाकर किसी पाटला आदि पर रख दे । ध्यान रहे कोई भी वस्तु हिलती डुलती न हो तथा चूल्हे की अग्नि शान्त कर उसके ऊपर पानी का भरा वर्तन रख ढक देवे तथा भोजन बनाने वाली स्त्री अथवा पुरुष शान्ति भाव हो चौके में बैठ जावें।
भोजनालय-भोजन स्थान जहां पर भोजन कराना हो वहाँ पर मुनि के लिए मेज जो खड़े होने पर टुण्डी तक ऊँची हो रखे तथा नीचे एक तसले में घास रखकर मेज के पास एक कोने पर रख देवे घास इसलिये रखना आवश्यक है कि साधु खड़े होकर अंजुलि में ग्रास, जल आदि लेते हैं। वह उसी तसले के सीध पर अंजुलि बांध खड़े हो जावेंगे । जल आदि जो भी वस्तु
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com