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________________ धर्म-शासन बनावेगा उनको प्राप्ति चाहे जिस रीति से होती हो। धर्म ने धन और कामिनो को ही पाप का मूल बताया है और इससे सदा बचे रहने का ही उपदेश दिया है। उसी का प्रताप है कि आज असंख्य पुरुष काम की कामना रखते हुए भी अप्सरः सन्तिभ परस्त्री को आँख उठाकर भी नहीं देखते। परधन से उसी प्रकार दूर बचते हैं कि जैसे काले नाग से। कुछ थोड़े से ही ऐसे जनाधम बचे रहे कि जिनपर धर्म की छाप नहीं पड़ी; उनके ही लिए पुलिस न्यायालय और कारागृह को आवश्यकता पड़ी। धर्म को छाप हृदय पर अङ्कित होती है। और उसी के अनुसार पुरुष स्वयमेव निर्दिष्ट और अकलङ्कित मार्ग पर चलता है, उसको चौराहे पर खड़े हुए सिपाही की तरह किसी मार्ग निर्देशक की आवश्यकता नहीं। विचार तो इस बात का हो गया है कि राज सत्ता अपनी पूर्ण सहायिका धर्म सत्ता को सपनी रूप से देखने लगी है ओर उसको मिटाने के लिए तुली हुई है। यह प्रयास अपने पैरों में हो कुठाराघात के समान हो सकता है। धर्म की उपेक्षा करना और फिर भी उस धर्म की जिसके कि महान् आचार्य गवर्नर जेनरल के समान बिना १०-२० हजार रुपये मासिक वेतन पाये और बिना वायुयान आदि से यात्रा फिये, केवल अन्न वस्त्र की साधारण प्राप्ति और पदाति यात्रा से ही अव्यवस्था के मूल को उखाड़ रहे हों, कल्पवृक्ष की और कामधेनु को उपेक्षा करना है। लौकिक शासन व्यवस्था जिसको कि राजकीय व्यवस्था भी कहते हैं का तो निर्माण हो गया है और होता जा रहा है उस शासन व्यवस्था का वह राजतन्त्र रूप जो कि किसी भयानक राक्षस रूप से कम नहीं था बदल दिया गया है और उसके स्थान में प्रजातन्त्र रूप जो कि किसी देव रूप से कम सम्भावित नहीं किया गया है स्थापित कर दिया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034496
Book TitleDharm Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghunandan Sharma
PublisherRaghunandan Sharma
Publication Year
Total Pages16
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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