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________________ धर्म-शासन हमको तो केवल धर्म शासन व्यवस्था की ओर देखना है इसका पहिला ही रूप रहना चाहिए अथवा दूसरे की तरह इसमें भी परिवर्तन करना चाहिए। हां यह तो मानना ही पड़ेगा कि लोक शासन के राजाओं की तरह हमारे अधिकत: धर्म व्यवस्थापक भी उच्छृङ्खल हो गये हैं जिनके हो कारण धर्मसत्ता आज निर्बल हो रही है और अपना जीवन मरण राजसत्ता के ही हाथों में देख रही है। पुरातन समय में धर्मसत्ता इतनी बढ़ी चढ़ी थी कि राजसत्ता को सर्वदा उसकी अनुचरी रहना पड़ता था। कुछ एक समय में राजसत्ता इतनी निर्बल हो गई थी कि उसको धर्मसत्ता में ही विलोन होना पड़ा था जिसका कुछ कुछ रूप आजकल भो तिब्बत के दलाईलामा और कबायलो प्रदेश के फकीरों में पाया जाता है । वर्तमान समय में धर्मसत्ता राजसत्ता पर ही आश्रित है अतः धर्मसत्ता के पुनरुज्जीवन में पूर्णतया राजसत्ता को उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देख सकते। इस पर तो कोई विवाद ही नहीं हो सकता कि उन अयोग्य धर्म व्यवस्थापकों को जिनकी कि देख रेख में इस धर्म कल्पतरु का सिञ्चन तो दूर रहा प्रत्युत उनको घोर आतप से झुलसाया गया हो बदला जावे। राजसत्ता के व्यवस्थापकों की तरह धर्मसत्ता के भी व्यवस्थापक बदले जा सकते हैं, यह मत तो सर्वसम्मत है। परन्तु धर्मसत्ता का विधान जिसका कि निर्माण ऐसे आप्त पुरुषों द्वारा हुआ है जिनके अगाध ज्ञान समुद्र की समानता वर्तमान काल के असंख्य व्यवस्थापकों का भी क्षुद्र ज्ञान पल्वल नहीं कर सकता-नहीं बदला जा सकता। हाँ उपविधान जिसका कि निर्माण समय-समय पर इतर इतर व्यवस्थापकों द्वारा होता रहता है, बदला जा सकता है। विचारणीय विषय है व्यवस्थापकों का कैसे व्यवस्थापन हो । इसके लिये राजसत्ता के परिवर्तन की ओर देखना पड़ेगा और उसके तत्वों का भी विश्लेषण करना पड़ेगा। पहिली राजसत्ता एक ही राजा के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034496
Book TitleDharm Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghunandan Sharma
PublisherRaghunandan Sharma
Publication Year
Total Pages16
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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