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________________ चौलुक्य चंद्रिका आठ गुनी अधिक है। परन्तु ब्रिटन निवासी हमारेही अधिराजा नहीं वरन् संसारके सबसे बड़े साम्राज्यके भोक्ता हैं। उनके राज्यमें संसारका सबसे अधिक भूभाग है। यहां तक कि अंग्रेजोंके साम्राज्यमें कभी भी सूर्यास्त नहीं होता। हमारे देश और अंग्रेजोंके देशका अन्तर ५००० मीलसे भी अधिक है। ब्रिटन और भारतके मध्य आवागमनका जल और स्थल दो पथ हैं। और अब तो आकाश पथभी खुल गया है। परन्तु आवागमनका सुगम मार्ग जल पथही है। अंग्रेजोंने भारतमें जल पथसे प्रवेश किया था। उन्होंने हमारे देशमें विजेताके रूपसे नही वरन व्यापारी रूपसे प्रवेश किया था। और क्रमशः अपने अध्यवसाय और कौशल, जिसका नामान्तर राजनैतिक पटुता, के बलसे समस्त देशको अधिकृत कर लिया है। एवं अपनी राजनीतिज्ञता तथा वैज्ञानिक बलके सहारेसे इस विशाल देशको कौन बतावे संसारके १-६ भाग पर और १-५ जनतापर शासन करती है। सच्ची बात तो यह है कि आज संसारमें अंग्रेज जातिकी नीतिज्ञता अपना प्रतिद्वन्दी नहीं रखती। यदि शर्मन्य देशाभिजात और गोकर्ण विश्वविद्यालयके अद्वितीय विद्वान अध्यापक मोक्ष मूलरके " हिन्द हमें क्या सिखा सकता है" के वाक्य यदि हमसे पूछा जाय, "संसारमें किस स्थानके मनुष्योंने सर्व प्रथम ईश्वरी ज्ञान प्राप्त किया था और सर्व श्रेष्ठ है तो हम हिन्दुस्तानको बतायेंगे” को यदि हम इस प्रकार परिवर्तित कर लेवें “यदि हमसे पूछा जाय कि संसारमें कौन जाति सबसे अधिक नीति विदा और परं कौशला है और जिसका प्रत्येक राज्यनैतिज्ञ व्यक्ति परं प्रवीण है तो हम अंग्रेज नाति और और अंग्रेज राजनैतिकोंको बतायेंगे"। तो हमारे इस कथनमें न तो अत्युक्ति होगी और न मिथ्यात्वका समावेश होगा। खैर अब हम विषयान्तरको छोड़ सीधे मागेपर आते हैं। भारतका व्यापारिक तथा आक्रमण प्रत्याक्रमणात्मक संबंध मध्य एसिया और यूरोप खण्डके साथ बहुत प्राचीन है। परन्तु इस अधिक पुराकाल के संबंध विवेचनके झमेलेमें न पड़कर अपने इतिहासके उत्तरकालसे संबंध रखनेवाली अवधिका विचार करते हैं। प्राचीनकालके समानही भारत और यूरोप खण्डका आवागमन मार्गसे चलता था। १) जल-स्थल मार्गसे होनेवाला व्यापार प्रथम नौकाओं द्वारा अरब समुद्र होकर एलेक्जेन्ड्रीश्रा पहुँचता था। और वहांसे वेनिस और जिनेवा इत्यादि इटलीके बन्दरोंसे युरोप खण्डमें प्रवेश करता था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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