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________________ प्राक्कथन २) स्थल मार्ग दो भागोंमें बटा था। अ) कन्दहार' ईरान-भारतसे चलकर कन्दहार, ईरान, लघु एशीआ और पेलिस्टाइन आ) और कन्दहार' काबुल-भारतसे चलकर कन्दहार, काबुल, बलख, समरकन्द और केस्पिअन समुद्र पार कर यह मार्ग पुनः स्तम्बुल और वल्गा नदी मार्गसे जर्मनी होकर दो भागोंमें बट जाता था। प्रथम यह व्यापार मूर जातिके हाथमें इस्वी सन १४५३ पर्यन्त था। परन्तु उसी वर्ष तूर्कोने स्तम्बुल और कोन्स्टेन्टिनोपोल विजय किया और यह व्यापार मार्ग बन्द हुआ। अतः यूरोप निवासियोंको भारतके साथ व्यापार मार्ग अनुसन्धानकी चिन्ता हुई। इस समय थूरोप खण्डमें पोर्चुगीजोंका सौभाग्य सूर्य चमक रहा था। और वे परं साहसिक तथा पटु नाविक थे। अतः वे सर्व प्रथम मार्ग अनुसन्धानमें प्रवृत्त हुए । इस्वी सन १४६२ में कोलम्बस भारतका मार्ग अनुसन्धान करनेको चला परन्तु अमेरिका चला गया। किन्तु सन १४६८ में वास्को डिगामा भारत पहुँचनेमें समर्थ हुआ और भारत वसुन्धराके कालीकट नामक स्थानमें उतरा। और स्थानीय राजा जमोरिनसे साक्षात् किया। जमोरिन उसके अनुकूल पड़ा परन्तु अरबोंने उसका विरोध किया। अतः दूसरे वर्ष १४६६ में लिस्बन लौट गया। इसके अनन्तर इस्वी सन १५०७ में काल केलिकट आया और व्यापारिक कोठी खोल कर बैठ गया । एवं १५०९ में वास्को डीगामा पुनः केलिकट आया उस समय उसे जमोरिन के साथ युद्ध करना पड़ा। परन्तु कोचीन और कनानोरके साथ अनुकूलता हुई। इसी अवधिमें पोर्चुगल नरेशने ६ पटु व्यक्तियोंका आर्मडा नियुक्त कर भारत भेजा। और वे यहां आकर केवल व्यापारमेंहीं प्रवृत्त नहीं हुए. परन्तु व्यापारिक लाभकी दृष्टिसे दुर्ग आदि बना लड़ने झगड़नेभी लगे। अलबेकर्क अरमडाके पश्चात् भारत आया और १५१० में गोआ पर अधिकार जमाया। १५१२ में बीजापूरकी सेनाने गोआ पर आक्रमण किया परन्तु हटाई गई। अलबेकर्क १५१० में मरा। अनन्तर इन्होंने १५४५ पर्यन्त दक्षिण भारतमें समुद्र मार्गसे गुजरातमें आकर दिव और खम्भात आदि स्थानोंको अधिकृत किया। एवं सन १५६४ पर्वन्त भारतके विविध स्थानों में व्यापारिक केन्द्र बनाया तथा लंका आदि अनेक द्वीपोंको विजय किया परन्तु इनका सौभाग्य अस्ताचलोन्मुख हुआ। इन्हें पराभूत करनेवाले अंग्रेज और डच भारतीय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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