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________________ ३८ चौलुक्य चंद्रिका ] कवि के वंश परिचय के संबन्ध में हमारा विचार है कि कोईभी व्यक्ति अपने वंश परिचय को सौ डेढसौ वर्ष के अन्तर्गत नहीं भूल सकता, अतः उसका स्वदत्त परिचय निर्भ्रान्त है । हां उनकी बातें विलग हैं। जिनके वंशका कोई स्थान हीं नहो । यहां तो arat दूसरी है, कवि का वंश, वल्लभी का प्रख्यात राजवंश है। जिसनें लगभग तीन शताब्दियों पर्यन्त बड़े गौरव के साथ कुशद्विप अर्थात वर्तमान काठियावाड़ और आनर्त वर्तमान खंभात और खेडा आदि प्रदेश में राज्य किया था । धर्म और न्याय परायणता में अद्वितीय था । विद्वानों को आश्रय प्रदान करने मे मुक्त हस्त था । दान धर्म में कर्ण का प्रतिद्वन्द्व भही ऐसे महाकवि जिसकी राजसभा के भूषण थे। जहां बौद्ध, जैन, और वेदानुयायी सम भाव से निवास करते थे । धार्मिक चचा नित्य प्रति हुआ करती थी । जो उत्तराधीश्वर श्री कंठ जाधिपति के वंश के साथ वैवाहिक संबन्ध सूत्र में बँधा था । ऐसे प्रख्यात वंश का स्मृति चिन्ह शेष वंशधर के हृदय पट पर नहो यह कदापि माना नहीं जा सकता । साधारण से साधारण वंश के वंशधर आज साभिमान अपने वंशका स्मृति चिन्ह अपने हृदयमें जीवित रखे हुए हैं। हजारों वर्ष व्यतीत होने के कारण कथानकमें यद्यपि नाना प्रकार की अनर्गल बातें घुसी हैं पर उसका चिन्ह लुप्त नहीं हुआ है। फिर कविको हम अपने वंश का स्मृति चिन्ह अन्यथा वर्णन करने वाला क्यों कर मान सकते हैं । अतः कविने जो अपना वंश परिचय दिया है, उसमें किन्तु परन्तु को स्थान प्राप्त होने की संभावना कालत्रय में भी नहीं है । इस हेतु कवि चित्रगुप्त वंशीय (वाल्मीकि) बालम कायस्थ था । मैत्रक वंशकी जातीयता निश्चित होते हीं उसका मूल निवास कायस्थ जाति का केन्द्र स्थान सिद्ध होता है । कायस्थों का केन्द्र संयुक्त प्रान्त ( अवध और काशी आदि ) और विहार (मगध और मिथला आदि ) था और है। जहां आज भी कैथी लिपी का प्रचार है । 1 आलोच्य शासन पत्र के लेखक और उसकी लिपी का निश्चय करने पश्चात हम पूर्व कथित साम्यतादि को लेते हैं। आलोच्य लेख की पंक्ति १० में दान दाता के पितृव्य को चित्रकंठ अश्व का स्वामी कहा गया है । विक्रमादित्य के शासन पत्र के पूर्वोद्धृत वाक्य में स्पष्ट रुपेण उसे उक्त घोडे का स्वामी ' माना गया है। प्रस्तुत लेख की पंक्ति १३ में दाता को नागवर्धनका पादानुध्यति कहा गया है। युवराज शिलादित्य के पूर्व प्रकाशित लेख की पंक्ति ७ में नागवर्धन पादानुध्यात बताया गया है । इन साम्यता आदि तथा पूर्व कथित कारणो से हम शासन पत्र को यथार्थ घोषित करते साथही शासन पत्र का पर्याप्त रूपेण विवेचन मान इतनेहीं से अलम् करते है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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