SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ફ્ fire after का नाम बालम कायस्य लिखता है। हमारी समझमें यद्यपि हमने अपनी पुस्तक "नेसनलिटी ऑफ दी वल्लभी कीगंस" में पूर्ण रुपेण मैत्रकों की जातीयता पर प्रकाश डाला है। तथापि यहां कवि सोढलके कथन का अवतरण देना असंगत नही वरन विषय को स्पष्ट करने वाला होगा। इस हेतु यहां पर उसका अवतरण देते है । ::: वंशस्य सच्चरितः सारवतः किमंग संगीयते सुललिता कुटिलस्य तस्य । येनान्तरा धृतभरेण धराधिपत्ये राज्ञां जयत्यहत विस्तरम। तपत्रं ॥ किंबहुना । तृतीय मतोन्मेष कायस्थः अति लोचनं । राज वर्गों बहन्नेष भवेदत्र महेश्वरः ।। उधृत वाक्य में कवि ने अपनी जाति का परिचय दिया है। हां मानते है कि कायस्थों के प्रचलित जातीय कथानकसे इसमे कुछ अन्तर है । हमारी ससझमे वह अन्तर नगण्य है क्योंकि अपनी मातृभूमि से हजारो मिल की दूर पर रहने तथा अपने जातीय बन्धुओं से संबंध विच्छे हो जाने के कारण अपने जातीय कथानक में अन्तराभास कां संमेलन करना असंभव नहीं है । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे सामने अग्निकुल मानने वाले चौलुक्य, चौहान, प्रतिहार और परमार आदि राज वंश है। इन चार राजवंशों में परमारो को छोड किसी के शासन पत्र आदि में उनका अग्निकुंड से उत्पन्न होना नहीं पाया जाता । पर आप उनमेंसे किसी से पूछें बे अपनेको अग्निकुल बतावेंगें । परमारोके शासन पत्र आदि उन्हें अग्निकुण्ड संभूत बताते हैं पर ऐसा प्रकट करने वाले शासन पत्रों से पूर्व भावी शासन पत्रों में उनका भी अग्निवंशी होना नहीं पाया जाता । कवि सोढल के पूर्वज बल्लभी राजवंश के नाश पश्चात लाट देश में चले आये थे और वह अपने मातृक वंशमें आश्रित था । कवि का समय विक्रम की दशवी शताद्वि का प्रारंभ है। इस हेतु बल्लमी राजवंश की स्थापना और कवि सोढल के समय में लगभग ५५० वर्ष का अन्तर है। राजवंश के उच्छेद और कवि के समय में लगभग डेढ सौ वर्ष का अन्तर है 1 कवि सोढल ने अपनी पुस्तक स्थानक (वर्तमान थाना) पति शिलाहार वंशी राजा ममुनि को अर्पण की थी । अतः कवि का आत्म परिचय के अन्तर्गत अपने को बल्लभी राज बंशोद्भूत — केवल इतना हीं नहीं शेष वंशधर - प्रकट करना ध्रुव सत्य है । यदि ऐसी बात न होती तो लाट के चौलुक्य और स्थानक के शिलाहार जिनके साथ उसका घनिष्ट संबंध था, एवं अन्यान्य राजवंश तथा जन समुदाय और विद्वान प्रभृति उसके कथनका अवश्य हीं विरोध किए होते। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy