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________________ [ ६७ ] लिये घो कल्याणक नहीं होसकता. ऐसा कहनेवालोंकी बडी अशानता है, क्योंकि देखो - जैसे देवानंदाने मेरे १४ महा स्वप्न त्रिशला ने हरण किये ऐसा स्वप्न देखा, वैसेही त्रिशला भी मैने देवानंदा के १४ महा स्वप्न हरण किये हैं, वैसा सिर्फ एकही स्वप्न देखती और - च्यवन कल्याणक की सिद्धि बतलानेवाले नमुत्थुणं वगैरह अन्य कोईभी कार्य उसीरोज न होते तथा कल्पसूत्रमें भी "एए चउदस सुमिणा, सव्वा पासेइ तित्थयरमाया । जं स्यणि वक्कमई कुच्छिसि महायसो अरिहा" यहपाठ अनादि मर्यादामुजब त्रिशला संबंधी न कहकर देस्वानंदा संबंधी कहते और पार्श्वनाथस्वामिके तथा नेमिनाथस्वामिके च्यवन कल्याणक संबंधी उन्हों की माताओंने १४ महास्वप्न देखे, उसी समय इन्द्रकाआसन चलायमान हुआ, तबविधिपूर्वक हर्षसे नमुत्थुणं किया और प्रभातमें राजाओंने स्वप्न पाठकको बुलाकर स्वप्नोंका फल पूछा, तब स्वप्न पाठकोंने १४ महास्वप्न देखनेसे रागद्वेषको जितनेवाले जिने; त्रैलोक्य पूज्यनीक तीर्थंकर पुत्र होनेका कहा. इत्यादि च्यवन कल्याणकके कार्योंकी भलामणभी त्रिशला संबंधी न द्रेकर देवानंदा संबंधी देते. और आषाढ शुदी६ को ही नमुत्थुणं होने वगैरह उपरके तमाम कार्योंका उल्लेख कल्पसूत्रादिमें शास्त्रकार करते, व समवायांगसूत्रवृत्ति में अलग भवभी न गिनते और आसोजवदी१३को नमुत्थुणं वगैरह च्यवन कल्याणक के कोई भी कार्य नहीं होते, तबतो त्रिशलाके गर्भ में आनेको च्यवनकल्याणक नहीं मानते तो भी चल सकता, मगर ऐसा नहीं है, और आषाढ शुदी ६ को नमुत्थुणं व. गैरह च्यवन कल्याणकके कार्य नहीं हुए, किंतु आसोज वदी १३को हुए हैं. इसलिये आसोज वदी १३को ही च्यवन कल्याणकके तमाम कार्य होने से उनको अवश्यही कल्याणकपना मान्य करना योग्य है। और स्वप्न हरण वगैरह के बहाने से कल्याणकपना निषेध करना सो अज्ञानता से शास्त्र विरुद्ध प्ररूपणा करना योग्यनहीं है. और जन्म त्रिशलामाता के गर्भ से हुआ है, तथा च्यवनकल्याणक के सर्व कार्य भी त्रिश लाके गर्भ में आये तब हुए हैं, इसलिये त्रिशला के गर्भ में आनेरूप च्यवन माननाही आगम प्रमाण अनुसार और युक्तियुक्त है, च्यवन के सिवाय जन्मभी नहीं मान सकते. यह जगत विख्यात प्रसिद्ध न्यायकां बात है. त्रिशलाके गर्भ में आये तब अनादि मर्यादामुजब च्यवन कल्याणक के सर्वकार्य खास सूत्रकार ने लिखे हैं, जिस परभी उन्हों को उत्थापन करके अकल्याणकरूप ठहरानेके लिये उसबातको निंदनीक कहकर बाल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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