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________________ [ ६८ ] 1 जीवों को मिथ्यात्व के भ्रममेगेरनेका अनर्थ करना सर्वथा अनुचित है. और जैसे-देवलोक से च्यवन हुए बाद तथा माता के गर्भ में अवतार लेनेबाद नमुत्थुणं वगैरह व्यवन कल्याणकके कार्य होते हैं, तो भी 'कारणमै कार्यका उपचार' होता है, इसलिये च्यवनसमय नमुत्थुणं वगैरह कार्य होने का कहनेमें आता है । तैसेही यद्यपि देवानंदामाताके गर्भ में नमुत्थुणं हुआ तो भी आषाढशुदी६के दिननहीं, किंतु आसोज वदी १३ के दिन हुआहै, तथा उसी समय त्रिशला माताके गर्भ'में जानेका होने से उन्हीके निमित्त भूतही 'कारणमें कार्यका उपचार' • मानकर त्रिशला माता के गर्भ में आने संबंधी नमुत्थुणं वगैरह कार्य होने का कहने में आता है. और इन्द्रमहाराज भगवान्के विनयवान भक्त थे; इसलिये अवधिज्ञान से भगवान्‌को देखतेही उससिमय न. मुत्थु किया और त्रिशला माता के गर्भ में पधराये. यदि भगवान्को अवधिज्ञान से देवानंदामाता के गर्भ में देखकर त्रिशलामाता के गर्भ में पधराये बाद पीछे सेनमुत्थुणं करते तो विनयभक्तिरूप मर्यादाकाभंग होता, इसलिये विनय भक्तिरूप मर्यादा रखनेकेलिये पहिले नमुत्थुर्ण किया और पीछे त्रिशलामाता के गर्भ में पधराये देखो, जैसे कोई राजा महाराजा भगवान्का आगमनसुनने मात्रसेही हर्षयुक्त होकर उसीसमय उसी दिशा तरफ पहिले वहांसेही भगवान्को नमस्कारकरते हैं, और बाद में भगवान के पास वहां जाकर उचित भक्ति करते हैं । तैसेही इन्द्रमहाराज ने भी अवधिज्ञानसे भगवान को देखतेही वहांसे नमुत्थुरूप नमस्कार किया और त्रिशलामाता के गर्भ में पधराये, बाद त्रिशला माताके पासमें आकर तीन जगतके पूजनीक तीर्थंकर पुत्र होनेका कहा और देवताओंको आशा करके धनधान्यादिककी वृद्धि करवाने वगैरह कार्योंसे भगवानकी उचित भक्ती करी । यह सर्व कार्य आसोजवदी १३के दिन हुए हैं, इसलिये कारणमें कार्यका उपचार माननेसे नमुत्थुणं वगैरह तमाम कार्य त्रिशलामाता के गर्भ में आनेसंबंधी समझने चाहिये. जिसपर भी देवानंदा के गर्भ में नमुत्थुणं होनेका कहकर त्रिशला के गर्भ में आने संबंधी आसोज वदी १३के दिनको च्यवन कल्याणकपने रहित कहते हैं उन्होंकी अज्ञानता है । और जो बात नहीं बननेवालीहोवे; असंगतीरूप या असंभवित होवे, वोही बात कभी कालांतर में बनजावे, उन्हीं बातको शास्त्रोंमें आश्चर्य कारक अच्छेरारूप कहते हैं । इसलिये जिलबातको अच्छेरा कह दिया, उस बातमें अन्य शास्त्र प्रमाणकी मर्यादा बाधक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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