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________________ [६६] आसोज वदी १३ के दिन संबंधी है, ऐसा समझना चाहिये क्योंकि देखो-इन्द्रमहाराजने भगवानको नमुत्थुणं करके अपने सिंहासन पर बैठकर, प्राचीन कर्म उदयसे देवानदाके गर्भमें भगवानको उ. स्पन्न होना पड़ा, ऐसा अच्छेरारूप विचारके हरिणेगमेषिदेवको आभाकरके आसोज वदी १३को त्रिशलामाताके गर्भमें भगवानको सं. क्रमण करवाये, इसलिये यह सबबातें आसोज वदी १३को उसी समय हुईहैं, इसलिये ८२दिन तकतो इन्द्रमहाराजका आसन चलायमान नहीं होनेसे भगवान देवानंदाके गर्भमें उत्पन्नहुए हैं,ऐसा मालूमभी नहीं पडा,मगर संपूर्ण ८२ दिन गये बाद अवधिज्ञानसे. मालूम पडा; तब हर्षसे विधिपूर्वक नमस्कार रूप नमुत्थुणं किया और त्रि. शलामाताके गर्भ में पधराये । इसलिये त्रिशलामाताके गर्भमें आनेके दिन आसोज वदी १३ को नमुत्थुणं करनेका कल्पसूत्रादि आग. मानुसार प्रत्यक्षही सिद्ध होताहै,और तीर्थकर भगवान माताके.ग. में आकर उत्पन्न होवे, तब इन्द्रमहाराजको अवधिज्ञानसे मालूम पडे, उसी समय ' नमुत्थु णं' रूप नमस्कार करनेकी आगमानुसार अनादि मर्यादा है, मगर उस समय वहां सामान्य नमस्कार करने की मर्यादा नहींहै । इसलिये 'महापुरुष चरित्र' में और 'श्रीत्रिषष्ठिशालाका पुरुषचरित्र' के १० वे पर्वमे श्रीमहावीरस्वामिके चरित्रमे आसोज वदी१३को इन्द्रमहाराजका आसन चलायमान होनेसे अवधिज्ञानसे भगवानको देवानंदाके गर्भमे देखकर नमस्कार किया ऐसा आधिकारहै, सो नमुत्थुणं रूप नमस्कार करनेका समझना चाहिये मगर सामान्य नमस्कार करनेका नहीं समझना। और तीर्थकर भग. पानके च्यवन समये इन्द्रमहाराज नमुत्थुर्णरूप नमस्कार हमेशा करतेहैं,तथा उसीसमय तीनजगतमै उद्योत,और सर्व जीवोंको क्षण. मात्र सुखकी प्राप्ति होती है,उन्हीकोही व्यवन कल्याणक मानते हैं, यही सर्व कार्य आसोज वदी १३ के रोज होनेका ऊपरके लेखसे आगमादि प्राचीन शास्त्रानुसार सिद्ध होताहै.और समवायांग सूत्र. वृत्ति वगैरह आगमादि शास्त्रोंमें त्रिशलामाताके गर्भमें आसोज घ. दी १३ को भगवान आये उन्हींकोही तीर्थकर पनेके भवमें गिना है, इसलिये त्रिशलामाताके गर्भ में आनको आसोज वदी १३ के रोज दूसरा च्यवनरूप कल्याणक पना मान्य करना आत्मार्थी निकट भ. व्य जीवोंको उचितहीहै. जिसपरभी उनको कल्याणकपनेका निषेध करनेके लिये देवानंदाके १४ महास्वप्न त्रिशलासे हरण हुए हैं, इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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