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________________ [५६] था. तब महाराज तो वहांही ठहरकर अनेक प्रकारके कष्ट सहन क रतेहुएभी भव्यजीवोंके उपकारकेलिये जिनाशानुसार सत्यबातें लोगोको बतलाते रहे, और चैत्यमें ठहरने वगैरह चैत्यवसियोंकी कल्पित बातोका खंडन करते रहे। यहबात 'गणधर सार्धशतक' - थकी लघुवृत्ति तथा वृहद्वृत्ति वगैरह शास्त्रोमें खुलासा लिखी है। जिसपरभी ऊपरमुजब चैत्यवासियोंकी भूलोंके तथा जिनाशानुसार सत्य बातोके प्रसंगको मायावृत्तिसे छुपाकरके 'अपना नवीन मत स्थापन करनेकेलिये चामुंडिकादेवीके मंदिर में ठहरेथे' ऐसा प्रत्यक्ष मिथ्या लिखकर महाराजकी झूठी निंदाकी और दृष्टिरागी बाल जी. वोंकोभी परम उपकारी युग प्रधान आचार्य महाराजके झूठे अवर्णवाद बोलनेवाले बनाये यहभी सतावीशवी बडी भूल की है। २८- " यो न शेष सूरीणामक्षातसिद्धांतरहस्यानाम् " इत्यादि 'गणधर सार्धशतक' ग्रंथकी १२२वी गाथाकी लघुवृत्ति तथा बृहत वृत्तिके यह वाक्य-सिद्धांतके रहस्यको नहीं जाननेवाले द्रव्यलि. गी चैत्यवासियों संबंधी है, मगर पहिले होगये हैं उन सबपूर्वाचा. यौसंबंधी नहीं है, जिसपरभी 'पहिले जितने आचार्य होगये हैं उन सबोंको सिद्धांतके रहस्यको नहीं जाननेवाले ठहराकर जिनवल्लभसूरिजीने छठा कल्याणकनवीन प्रकाशितकिया' ऐसा अर्थ कहतेहैं। सो अपनी विद्वत्ताकी लघुताकारक अपनी अज्ञानता प्रकट करते हैं । क्योंकि शेष ' कहनेसे सिद्धांतक रहस्यको जाननेवाले सब पूर्वाचार्योको छोड़कर बाकीके सिद्धांतके रहस्यको नहीं जाननेवाले भशानियोका ग्रहण होता है और 'अशेष' कहनेसे सबका प्रहण हो सकता है, मगर यहां तो 'अशेष' शब्द नहीं है, किंतु 'शेष' शब्द है। इसलिये सर्व पूर्वाचार्योंका ग्रहण नहीं हो सकता, जिसपरभी सबका ग्रहण करते हैं सो 'शेष ' शब्दके अर्थको भी नहीं जानने घाले, अपनी अज्ञानतासे, शास्त्रोंके खोटे २ अर्थकरके, यहभी अंठाबीशची बड़ी भूलकी हैं। इसबातको विशेष विधेकी तत्त्वश विद्वान् लोग स्वयं विचार सकते हैं। . दखिये-खरतर गच्छवालोंने अपने पूर्वाचार्योंके चरित्रों में, जै. से-श्री अभयदेवसूरिजी महाराज संबंधी 'स्थंभन पार्श्वनाथ प्रक टकर्ता' तथा 'नवांगी वृत्ति कर्ता' वगैरह बात उन महाराजने जैनसमाजपर किये हुए उपकारोंकी यादगिरीकेलिये प्रसंशारूप लि. स्त्रीहैं । तैसे ही श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज संबंधीभी 'दश सह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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