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________________ [44] ल्याणकका निषेध करते हैं. वो लोग तीर्थकर गणधर पूर्वधरादि पूर्वा चायौकी और खास अपने तपगच्छकेभी पूर्वाचार्योंकी आशातना करनेवाले ठहरते हैं । इसलिये आत्मार्थी भवभिरू विवेकी जनोंको तो छठे कल्याणकका निषेध करना सर्वथा योग्य नहीं है. मगर करनेवालोंने यह पचीशवीभी बडी भूलकी है। इसको भी वि शेष तस्वजन स्वय विचार सकते हैं । २६- सभा मंडल में जाहीर व्याख्यान करतेहुए परोपकारकेलिये, सत्य बात प्रकट करने में अपनी स्वभाविक प्रकृतिसे, सञ्चके जोशमें आकर कितनेक वक्तालोग चौकी, देवल, या पाटापर जोरसे अपनाहाथ पिछाडते हुए अपना मंतव्य प्रकटकरते हैं, तथा कितनेक छातीठोक ते हुए, या भुजा आस्फालन करते हुए, अपनी सत्यबात प्रकट करते हैं, और कोई विशेष प्रबल विद्वान् वादी तो हाथमें खूब उंचा झंडा लेकर नगारा पीटवाते हुए विवाद करनेलिये नगर में उद्घोषणा क करवाते हैं । मगर यहबात कोई प्रकारले अनुचित नहीं है, किंतु सत्य बात प्रकाशित करने में अपनीहिम्मत बहादुरीकी स्वाभाविक प्रकृति है । इसीतरह से श्रीजिनवल्लभ सूरिजी महाराजने भी सबशिथिलाचारी चैत्यवासियों के सामने चैत्यवासका निषेध व आगमनानुसार श्रीमहा वीरस्वामिके छ कल्याणक मानने वगैरह विषयों संबंधी सत्य बातें प्रकाशित करने में अपनी हिम्मत बहादुरीसे भुजास्फालन पूर्वक क हाथा, कि - 'ऊपर की बातें जो न मानने वाले होंवें वो उन्होंकी शा स्त्रार्थकरने की ताकत हो तो मैंरेसामने आकर उनबातोंका शास्त्रार्थ से निर्णय करो' मगर उस समय किसीभी चैत्यवासीकी महाराज केला - थ शास्त्रार्थ करने की हिम्मत नहीं हुई। तब महाराजने सबलोगोंके सामने ऊपर मुजब सत्यबातें प्रकाशित की. इसतरह से 'गणधर सार्धशत क' वृहद्वृत्ति, लघुवृत्ति वगैरहका भावार्थ समझेबिनाही श्रीजिनवल्लभसूरिजीने 'स्कंधास्फालनपूर्वक ' छठा कल्याणक नवीन प्रकट किया ऐसा कहकर चैत्यवास वगैरह सब बातोंका संबंध छुपाकर छठे कल्याणकका निषेध करते हैं. सो मायावृत्तिसे या अज्ञानता से व्यर्थही भोलेजीवको उन्मार्ग में गेरनेके लिये मिथ्या भाषण करके यह भी छवीशबी बडी भूल की है। २७- श्रीजिनवल्लभसूरिजीमहाराज चैत्यवासका खंडन करनेवाले थे, इसलिये चैत्यवासियोने महाराजको शहर में ठहरनेको जगह नहीं दिया और द्वेषबुद्धिले चामुंडिका देवीके मंदिरमें ठहरनेका बतला Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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