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________________ [५७] स नवीनश्रावक तथा चामुंडिका देवी प्रतिबोधक' 'चैत्यवास शिथिलाचार निषेधक' 'षष्ट कल्याणक प्रकट कर्ता' वगैरह बातेभी इन महाराजने जैनसमाजपर किये हुए उपकारोंकी याद गिरिकलिये प्रसंशारूप लिखी हैं, सो नवीन कल्पित नहीं, किंतु शास्त्रानुसार प्राचीनहीहैं. इसलिये प्रसंशारूप लिखी हैं । जिसका मर्मभेद समझेबिना, 'गणधर सार्द्ध शतक' ग्रंथकी लघुवृत्ति तथा बृहत त्तिके 'यो न शेषसूरीणां' इत्यादि पाठोंके ऊपर मुजब सत्याको छपाकरके अपनी मतिकल्पना मुजब खोटे खोटे अर्थकरके भोले जीवोंको मिथ्यात्वके उन्मार्गमे गेरनेकेलिये धर्मसागरजीकी अंध परंपरावाले उनकी देखा देखी वर्तमानिक न्यायांभोनिधिजी, शास्त्र विशारदजी, न्यायविशारदजी, विद्यासागर न्यायरत्नजी, जैनरत्न, व्याख्यानवाचस्पति, आगमोद्धारक,गीतार्थ,वगैरह विशेषणोंको धारणकेरनवाल आचार्य,उपाध्याय, प्रवर्तक,गणि,पन्यास,प्रसिद्धवक्ता, विद्वान मुनिजनआदि सर्व ऐसेही अनर्थ करते हुए चले जाते हैं और सामान्यविशेष बातका भेदसमझे बिनाही सर्वतीर्थकर महाराजो संबंधी पंचाशक सूत्रवृत्ति'का पांच कल्याणको संबंधी सामान्यपाठको आगे करके कल्प,स्थानांग,आचारांगादिमें विशेषता पूर्वक च्यवनादि छ कल्याणककहेहैं,उन्होंका निषेधकरनेकेलिये आगमोके अनादिसिद्ध च्यदनादि कल्याणक अर्थको उडा देते हैं तथा जैसे यति-मुनि-साधुअणगार शब्द एकार्थके भावार्थवालेहैं,तैसेही च्यवनादि वस्तु-स्थानकल्याणक शब्दभी एकार्थके भावार्थवालेहैं, उसकाभेद समझे बिना ही च्यवनादिकोंको वस्तु-स्थान कहकर कल्याणकपने रहित ठहराते हैं। मगर दीर्घदृष्टिसे विवेकबुद्धिपूर्वक शास्त्रकार महाराजोंके अभिप्राय तरफ उपयोग लगाकर सत्य तत्त्व बातका कोई भी विचार नहीं करतेहै,यह अंधपरंपराकी कितनी बडीभारी लज्जनीय अनुचित प्रवृ. त्तिहै. इसकोविशेष विवेकीतत्त्वज्ञ पाठकगण स्वयविचार सकते हैं। औरभी देखिये-विवेक बुद्धिसे खूब विचारकरीये, यदि-नीचगोत्र कर्मविपाकरूप तथा आश्चर्यरूप कहनेसे कल्याणकपनेका निषेध हो सकता होवे, तबतो आषाढशुदी ६ को देवानंदामाताके गर्भमें भगवानआये,सोही नीचगौत्र कर्मविपाकरूप होनेसे कल्पसूत्रादि शास्त्रोंमें उनको आश्चर्यकहाहै,इसलिये तुम्हारे मंतव्य मुजबतो उनकोभी कल्याणकपनेका निषेध हो जावेगा. और विशेष अधिक आश्चर्यकारक दूसरे च्यवनकी तरह प्रथमच्यवनभी कल्याणकपने रहित होनेसे शे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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