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________________ [ ५४ ] को च्यवन कल्याणकपना प्रकट तथा सिद्धकरने के लियेही खासकरूप सूत्रमेही च्यवनकल्याणकके सर्व कार्य देवानंदा मातासंबंधी वर्णन नहीं किये, किंतु त्रिशलामाता संबंधी वर्णन किये हैं, तथा समवायांग सूत्रवृत्ति भी देवानंदामाता के गर्भ से ८२दिन गयेबाद त्रिशलामाताके गर्भ में आने को अलगरभव गिनती में लियेहैं और कल्पसूत्र तथा उन्हीं की सबी टीकाओं में तथा श्रीवीरचरित्रादि अनेकशास्त्रों में भी देवानंदा माता के गर्भ से ८२ दिन गयेबाद, आसोजवदी १३को त्रिशला माता के ग भर्मे भगवान् आये हैं, यह अधिकार बहुत विस्तारपूर्वक खुलासा के साथ कथन किया है । इसलिये देवानंदामाताकी कुक्षिले जन्म होनेके बदले त्रिशलामाताकी कुक्षिसे जन्म होने संबंधी किसी तरहकीभी असंगतिरूप शंका नहीं हो सकती. जिसपर भी असंगतिरूप शंका निवारण करनेकेलिये गर्भापहारका नक्षत्रबतलाने का कहकर, उनमें अलग २ भव गिनने व १४ महास्वप्न देखने वगैरह बातोंकों सर्वथा उड़ाकर दूसराच्यवनरूप गर्भपहारको कल्याणकपने रहित ठहराते हैं और बहुततुच्छ समझकर बडीनिंदा करी है सोयहभी माया वृत्तिसे तीर्थकर भगवान्‌की आशातनारूप चौवीशवी बडीभूलकी है. २५- श्रीऋषभदेव आदि तीर्थकर महाराज पहिले होगये, तथा श्री सीमंधरस्वामि आदि वर्तमान में हैं. उन्हीं सबीने श्रीमहावीरस्वामिके च्यवनादि छ कल्याणक कथन किये हैं, उन्होंकेही अनुसार गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचा यौन भी आचारांग, स्थानांगादि आगमोंमैभी च्य वनादि छ कल्याणक कथन किये हैं, उसीकेही अनुसार तपगच्छके पूर्वज वडगच्छके श्रीविनय चंद्रसूरिजीने कल्पसूत्र के निरुक्तमें, तथा चंद्रगच्छके श्री पृथ्वीचंद्रसूरिजीने कल्पसूत्रके ट्टिप्पण में और श्री पार्श्वनाथस्वामिकी पट्टपरंपरामें उपकेशगच्छीय श्रीदेव गुप्तसूरिजीने कल्पसूत्रकी टीकामै इत्यादि अनेक प्राचीन शास्त्रों में भी खुलासा पूर्वक च्यवनादि छ कल्याणक लिखे हैं । उसीकेही अनुसार तपगच्छकेभी पूर्वाचार्य श्रीकुलमंडनसूरिजी वगैरहोने भी श्रीकल्पावचूरि आदिमें च्यवनादि छ कल्याणक लिखे हैं । इसलिये श्रीतीर्थकर - गणधर - पूर्वधरादि पूर्वाचार्यों के प्राचीन समय सेही आगमानुसार आत्मार्थी सर्व गच्छवाले च्यवनादि छ कल्याणक मानने वाले थे, जिसपर भी आगमादि सबी प्राचीन शास्त्रोंके प्रमाणोकों जानबुझकर छुपा करके, या अज्ञानता से 'श्रीजिनवल्लभसूरिजीनें चितोड में छठे कल्याणककी नवीन प्ररूपणा करी, ऐसा कहकर जो लोग छठे क. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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