SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ५३ ] णककी नवीन प्ररूपणा करनेका श्रीजिनवल्लभसूरिजीमहाराजपर झूठा दोष आरोपण करते हैं. मगर प्रत्यक्षपने आगमप्रमाणोंकों उत्थापन करके मिथ्याभाषणसे श्रेवीशवी यहभी बडीभूल करके विवेकीतत्त्वश विद्वानोंके सामने अपनी लघुताका कारण कराते हुए कुछभी विचार नहीं किया । यह कितनी बडी लज्जा [शर्म] की बात है, इसको विशेष तत्त्वज्ञ पाठकगण स्वयं विचार सकते हैं । · और भी प्रत्यक्ष प्रमाण देखिये श्रीअंतरिक्ष पार्श्वनाथजीकी या त्रा करनेलिये मुंबई से संघ गयाथा, सो रस्तामें संघके दर्शनकरनेके लिये साथ में भगवान् के प्रतिमाजीथे, उनको वहां संघ ठहरे तबतक मंदिर में विराजमान करनेलगे, सो दिगंबरलोगोने मना किया, उन के सामने जबराई करने को गये. तब आपस में मारपीट हुई, शिर-फुटे कोर्टकचेरी में गये, दंडहोने का या कैद में जानेकामोका आया, हजारो रुपये संघ के खर्च हुए, तब छूटे और आपस में विरोधभाव तथा शासन हिलना बहुत हुई । इसपर अब विचार करना चाहिये, किउस समय संघवाले तथा संघकेसाथ आनंदसागरजी वगैरह साधु लोगभी विवेकवाले होते, तो व्यर्थ हठकरके तकरार खडी न करते, तो इतना नुकसान उठाना नहींपडता. इसीतरह से श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजभी व्यर्थ तकरार न होनेके लिये बुढियाका हठ देखकर वहांसे पीछे चले आये, सो तो दीर्घ दृष्टिसे विवेकतापूर्वक बहुत अच्छा काम किया । जिसके बदले उनको झूठे ठहरानेका दोष लगाना यह कीतनी बडी अज्ञानता है । और म्यान्यात में, गांवगांव में, देशदेशमें, अपने २ पाडोसीपाडोली - में, पंच पंचायत में, राजदरबार में या गच्छ गच्छ वा अंधपरारूढीकी खोटी प्रवृत्ति में, आपसके विरोध भाव संबंधी " ऐसे पहिले कभी हुआ नहीं, और अभी यह ऐसा करते हैं । सो कभी होने देगेंभी नह्रीं " इस तरहसे कहनेकी एक प्रकारकी रूढी है, उसमें सत्यासत्य की परीक्षाकि बिना किसीको झूठा ठहराना सर्वथा निर्विवेकता है. इसी तरहसेही उन चैत्यवासीनी बुढियानेभी अपने आग्रहसे वैसा कहाथा, उसका भावार्थ समझेबिना छठे कल्याणकको नवीन ठहराना, सोभी आगमोंके उत्थापन करने रूप तथा श्रीजिनवल्लभसूरिजीम - हाराजपर झूठा दोष आरोपणकरनरूप व अज्ञानताजनक बडी भारी भूलकी है इसबात को विशेष विवेकीतत्त्वज्ञजनस्वयविचार सकते हैं । २४ - देवानंदामाता के गर्भ से ८२ दिनबाद त्रिशलामाता के गर्भ में आने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy