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________________ [ ४ ] मालुसीसाथ विगेरे घणाक जीवो अनन्त संसारी या कपाले के-उत्सूतभासगाणं, बोहिनासो .. अणंतसंसारो। पाण चए वि घिरा उस्सुत्तं ता न भासंति ॥१॥ तित्ययर पवयण सूअं, आयरिगणहरं महढी। आसायंतो बहुसो, अणंत संसारिओ होई ॥२॥ उत्सूत्रना भाषकने बोधिबीजनो नाश थापछे अने अनन्त संसारनी वद्विथायछे माटे प्राणजतां पस धीरपुरुषो उत्सूत्र वचन बोलता . नथी तीर्थङ्कर, प्रवचम [ जैनशासन ] जान, आचार्य, गणधर, उपाध्याय, सानादिकमी महर्द्धि कसाधु, साधु ए ओनी आशातमा करतां प्राणी अणुकरी अनन्त संसारी थायछे । __ और सुप्रसिद्ध युगप्रधान श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणजी महाराजने श्रीआवश्यकभाष्य [विशेषावश्यक] में कहा है यथा--जे जिनवयणु-तिको, बयणं भासन्ति जे उमति । सम्मदिठीणं तं, दसणपि संसार बुद्धि करंति ॥९॥... ___ भावार्थ:-जो प्राणी श्रीजिनेश्वर भगवान् का वचनके विरुद्धवचन [उत्सूत्र] भाषण करता होवे और उसीको जो मानता होवे उस प्राणीका मुख देखना भी सम्यक्त्वधारियोंको संसार वृद्धि करता है ॥१॥. . ___ अब आत्मार्थी विवेकी सज्जन पुरुषों को निष्पक्षपातकी दीर्घदृष्टि से विचार करना चाहिये कि उत्सूत्र भाषण करने वाला तो संसारमें रुले परन्तु उत्सूत्र भाषकका मुख देखने वाले अर्थात् उस उत्सूत्र भाषक सम्यगदर्शनसें भ्रष्ट, दुष्टा. चारीको श्रद्धापूर्वक वन्दनादि करने वालोंको भी संसार की वृद्धिका कारण होता है तो फिर इस वर्तमान पञ्चम कालमें वत्सूत्र भाषकोंको परमपूज्यमानके उन्हीके कहने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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