SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १३२ ] पुलिमाए पज्जोसर्वेति एसउस्सग्गो सेसकाल पनोसविताणं अववादत्ति, श्रीनिशीथचूर्णिदशमोद्देशक वचनादाषाढ पूर्णिमायामेव लोधादि कृत्यविशिष्टा पर्युषणा कर्त्तव्या स्यात् इत्यलं प्रसंगेन उपरोक्तपाठ जैसा मैंने देखा वैसा ही यहाँ छपा दिया है और जैसे श्रीविनयविजयजीने उपरोक्त पाठ लिखा हैं वैसा ही अभिप्रायः का श्रीधर्मसागरजीने श्रीकल्प करणावली वृत्ति में और श्रीजय विजयजीनें श्रीकल्पदीपिका वृत्ति में अपनी अपनी विद्वत्ताको चातुराई से अनेक तरहके उटपटांग, पूर्वापर विरोधी विसंवादी और उत्सूत्र भाषण रूप शास्त्र कारोंके विरुद्धार्थ में अपनी मनकल्पना सैं लिखके गच्छकदाग्रही दृष्टि रागी श्रावकों के दिल में जिनाना विरुद्ध मिथ्यात्वका भ्रमगेरा हैं। जिसका सबपाठ यहाँ लिखने से ग्रन्थ बढ़जावे, और वाचकवर्गको विस्तार के कारण से विशेष वरुतलगे इसे नहीं लिखा और तीनों महाशयोंका अभिप्राय उपरके पाठ मुजब ही खास एक समान है, इसलिये तीनों महाशयोंके पाठको न लिखते एकही श्रीसुखबोधिका वृत्तिका पाठ उपरमें लिखा है उसीकी समीक्षा करता हु सो तीनों महाशयोंके अभिप्रायका लेखकी समझ लेना - अब समीक्षासुनो तीनों महाशय अधिकमास की गिनती निषेध करके फिर उसीकों ही पुष्टी करने के लिये प्रश्नोत्तर रूपमें लिखते है कि अधिकमासको गिनती में नही करते होतो ( किं काकेनः अक्षित; - इत्यादि) क्या अधिकमासको काकने भक्षण करलिया किं वा तिस अधिक मास में पाप नही लगता हैं और उम अधिकमास में क्षुधा भी नही लगती है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy