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________________ [ १३३ ] सो अधिकमासको गिनती में नहीं लेते हो अर्थात् जो अधिक मास में पाप लगता होवे और क्षुधा भी लगती होवे तो अधिकमासको गिनतीमें भी प्रमाण करके मंजर करणा चाहिये—इत्यादि मतलबसे उपहास करता प्रश्नकार वादीको ठहराकर फिर श्रीविनयविजयजी अपनी विद्वत्ता के जोरसे प्रतिवादी बनके उपरके प्रश्नका उत्तर देने मे लिखते है किमास्वकीय अहिलत्वं प्रगटयत स्त्वमपि अधिक मासे सति त्रयोदशषु मासेषु जातेष्वपि-इत्यादि अर्थात् अधिकमासको क्या काकने भक्षण करलिया तथा क्या तिस अधिकमासमें पापनही लगता है और क्षुधा भी नही लगती है सो गिनतीमे नही लेते हो इत्यादि उपहास करता हुवा तेरा पागलपना प्रगट मत कर क्योंकि-त्वमपि अर्थात् हमारी तरह जिस संवत्सरमें अधिकमास होता है उसी संवत्सरमें तेरहमास होते भी साम्वत्सरिक क्षामणे 'बारसरहमासाणं' इत्यादि बोलके अधिकमासको गिनती में अङ्गीकार तुभी नही करता है और तैसे ही चौमासी क्षामणेमें भी अधिकमास होनेसे पांच मासका सद्भाव होते भी 'घउण्हंमासाणंइत्यादि बोलके भधिकमासकी गिनती नहीं करता हैं :____ अब हम उपरके मतलब की समीक्षा करते हैं कि हे पाठकवर्ग ! भव्यजीवों तुम इन तीनों विद्वान् महाशयों की विद्वत्ताका नमुना तो देखो-प्रथम किस रीतिसै प्रश्न उठाते हैं और फिर उसीका उत्तरमें क्या लिखते हैं प्रश्नके समाधानका गन्ध भी उत्तरमें नही लाते और और बाते लिख दिखाते हैं क्योंकि उपरोक्त प्रश्नमें अधिक मासको गिनतीमें नहीं लेते हो तो क्या काकने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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