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________________ [९४] लिये इरियावही करनेका बतलायाहै,उसका आशय समझे बिनाही अपने गच्छके पूर्वज आचार्य महाराजकोभी विसंवादरूप मिथ्यात्व. का दोष लगानेका भय नहीं करते हुए सामायिक प्रथम इरियाव. ही स्थापन करते हैं, सो भी बडी भूल करते हैं. १९- औरभी देखो धर्मरत्नप्रकरण वृत्तिमें "इरियं सु पडिकंतो कड समयं " इरियावही पूर्वक स्वाध्याय करें; एसा पाठ है,उसमें 'समय' शब्दकीजगह 'सामाइय' शब्द बनाकर दो मात्राज्यादे अधिक पाठमें प्रक्षेपन करके स्वाध्यायकी जगह सामायिकका अर्थ बदलातेहै सो यहभी सर्वथा शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणारूप बडीभूलहै. २०-श्रीधर्मघोषसूरिजीने संघाचारभाष्यवृत्ति' में चैत्यवंदन संबं धी दशत्रिकके अधिकारमें सातवी त्रिकामे तीनवार भूमिप्रमार्जन करके इरियावहीपूर्वक-चैत्यवंदन करनेका बतलाया है, उसकेभी पू. परका संबंध छोडकर उसपाठका भावार्थ समझे बिना उसपाठसे भी सामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते ठहरते हैं, और इन महाराजकेही गुरु महाराज श्रीदेवेंद्रसूरिजीने प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही लिखा है, उस बातके विरुद्ध प्ररूपणाकरनेवाले ब. नाते हैं, सो भी बडी भूल है. २१-बंदीत्तासूत्रकीटोकाके पाठसेभीसामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते ठहरानेहैं,सोभी सर्वथाअनुचितहै,क्योकि देखो-वंदी. तासूत्रकी प्राचीन चूर्णि और श्रावकप्रशाप्तिवृत्ति वगैरह अनेकप्राचीन शास्त्रोंमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करनेका खुलासा लिखा है और खास वंदीत्तासूत्रकी टीकाभी नवमा सामायिक व्रतकी विधिसंबंधी आवश्यकचूर्णि,पंचाशकचूर्णि,योग शास्त्रवृत्ति वगैरह अनेक शास्त्रानुसार सामायिककरनेकी विधि लिखाहै, उन्ही सर्व शास्त्रोंमें भी प्रथम करेमिभंते और पीछे इरियावही लिखाहै, इसलिये प्राचीन चुर्णि आदिअनेक शास्त्रोके विरुद्ध होकर पूर्वापर विसंवादीरूप वि विरोधी कथन - एकही विषयमे ; एकही ग्रंथम ; कभी नहीं होसकताहै, जिसपरभी एकही विषयमें, एकही प्रथमें विसंवादी क. थन माननेवाले या कहनेवाले शास्त्रविरुद्ध श्रद्धा रखनेवाले सर्वथा अज्ञानी समझने चाहिये. २२-पंचाशकसूत्रकी चूर्णिके पाठसेभी नवमें सामायिक व्रतमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंतेका स्थापन करते हैं,सो भी सर्वथा अनुचितहै,क्योंकि इन्हीं चूर्णिमें नवमै सामायिकव्रत संबंधी प्रथम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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