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________________ [९३] तोभी सामायिक प्रथम इरियावही करनेका नहीं कहते हुए अपने २ बनाये ग्रंथों में सामायिकमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही कर. नेकाखुलासा लिखगयेहैं, उसका भावार्थ समझेविनाही उन महारा. कोंके विरुद्ध होकर सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापन करतेहैं, सो उन महाराजोंके वचन उत्थापनरूप और उन महाराजोंके विरुद्ध प्ररूपणा करनेरूप दोषके भागी होते हैं। १६- दशवैकालिकसूत्रकी टीकाके पाठसेभी इरियावही किये बि. ना कोई भी कार्यकरे तो अशुद्ध होताहै', इस बात परसे सामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करतेहैं सो भी बडीही भू. लहै, क्योंकि यह तो जैनसमाजमें प्रसिद्धही बात है, कि-दशवैका. लिकमूलसूत्र में और उसकी टीका सर्वजगह साधुओंके आचार-वि चार-कर्तव्य संबंधीही अधिकार है, उसमें किसी जगहभी श्रावकके सामायिक वगैरह कार्योसंबंधी कुछभी आधिकारनहींहै, इसलिये सा. धुआके गमनागमनसे जाने आनसे इरियावही करके पीछे स्वाध्याय, ध्यानादिधर्म कार्य करने बतलाये है, उसके आगे पीछके संबंध. वाले पाठको छोडकर अधूरे पाठसे सामायिकमे प्रथम इरियावही स्थापन करना सर्वथा अनुचित है. १७- श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराजने आवश्यकसूत्र'की बडी टीका तथा श्री उमास्वातिवाचक विरचित 'श्रावकप्रशप्ति' की टीकामेभी सामायिकमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही कहना खुलासा लिखा है, और इन्ही महाराजने श्रीदशवैकालिकसूत्रकी टीकाभी बनाया है, इसलिये इन्हीं महाराजके नामसे दशवैकालिकसूत्रकीटीकाके पाठसे प्रथम इरियावही स्थापन करनेसे इन महाराजके कथनमें पूर्वापर विरोधभाव विसंवादरूप दोषकी प्राप्ति होतीहै,इसलिये इनमहाराज के अभिप्राय विरुद्ध होकर अधूरे पाठसे सामायिक संबंधी खोटा अर्थ करके विसंवादका झूठा दोष लगाना बडी भूल है. यह महारा. जतो विसंवादी नहीं थे. मगर संबंध विरुद्ध आग्रह करनेवालेहीप्र. त्यक्ष मिथ्या भाषणसे बालजीवोंको उन्मार्गमे गेरनेके दोषी ठहरतेहैं. १८ - श्रीदेवेंद्रसूरिजी महाराजने 'श्राद्धदिनकृत्य'सूत्रकीवृत्तिमें प्र थम करेमिभंते पीछे इरियावही खुलासा लिखाहै, तथा धर्मरत्न प्र. करणकी वृत्तिमें तो-वाचना,पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा व धर्मक. थारूप पांचप्रकारकीस्वाध्यायकरने संबंधी अधिकारमें सिर्फ परावर्त नारूप (शाखपाठ पढे हुए फिरसे याद करने रूप)स्वाध्याय करनेके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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