SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [We] मोभी अन्य शास्त्रानुसार मोक्ष माननेमें आता है तैसेही श्री पंचाशकजी में बहुत तीर्थंकर महाराजोंके सम्बन्धसे छठे कल्याणकको नहीं लिखा तोभी उपर्युक्त शास्त्रानुसार जिनाचा के आराधक आत्मार्थियों को तो छठा कल्याणक अवश्यमेव मानना पड़ेगा परन्तु जिनाज्ञा के विराधक दीर्घसंसारी दुर्लभबोधि की वो बातही जदी है इसको विवेकी जन स्वयं विचार लेवेंगे,-- और आगे फिर भी विनय विजयजीने लिखा है कि (अन्य寄 चनीचैर्गो विपाकरूपस्य अतिनिद्यस्य आश्चर्यरूपस्य गर्भापहारस्यापि कल्याणकत्व कथनं अनुचितं ) इन अक्षरों करके श्रीवरप्रभुके गर्भापहाररूप छठे कल्याणकको निषेध करनेके लिये विनयविजयजीने नीच गौत्रका विपाकरूप अतिनिंदनीक आश्चर्यरूप गर्भापहारको कल्याणक कहना भी अनुचित है ॥ इस तरहका दिखाया सो इस तरहका उनका लेखको देखकर सूझे बड़े ही खेदके साथ बहुतही लाचारीसे लिखना पड़ता है कि विनयविजयजीने गुरुगम्य से श्रीजैमशास्त्रोंका तात्पर्यार्थको समझे बिनाही श्रीवीरप्रभुके गर्भापहाररूप छठे कल्याणकको निषेध करनेके लिये ऊपर के शब्द लिखके बृधाही अनन्त भव भ्रमणका हेतूभूत तथा अपने और दूसरोंके सम्यक्त्व रत्नरूपी कल्पवृक्षके मूल में दावानल लगाने जैसा महान् अनर्थकारक गाढ़ मिथ्यात्वका कारण करने को और शासनपति श्रीवीर प्रभुकी निन्दा करने को ही मानों विद्वान् नाम धरा करके श्रीपर्य ुषणा पर्व वांचनेके लिये ऊपर के शब्द लिखके सुबोधिका बनानेका परिभ्रम किया मालूम होता है क्योंकि देखो प्रथम तो श्रीतीध कर गणधर पूर्वरादि पूर्वाचार्यों ने श्रीवीरप्रभुके छठी करयासकको खुलासा पूर्वक कथन किया हैं तथापि विनयविजयजी ने उपरके अनुचित शब्दोंसे निषेध किया सो प्रत्यक्ष दीर्घशंसा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy