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________________ [ ६२३ ] दृष्टिरागियोंको अपने स्वार्थ के लिये अन्धपरम्परामें फंसाने. वाले आचार्य वगैरह पदधरोंकी रात्रिस्नात्र प्रतिष्ठा तथा प्राविकाओंका मन्दिरजीमेंरात्रिको आना और छठे कल्याणकको म मानने वगैरह बातोंके लिये चैत्यवासियों सम्बन्धी शास्त्रकारने कहा है सो हमने ऊपरमें ही उसका भावार्थ लिख दिया है इसलिये उपरोक्त बाक्य शुद्ध प्ररूपक आत्मार्थी पूर्वाचार्यो के लिये नहीं है क्योंकि चौदह पूर्वधर श्रुत केवली श्रीभद्रबाहुस्खामीजी, तथा श्रोजिनदासगणि महत्तराचार्यजी, श्रीहरिभद्रसूरिजी, श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणजी, श्रीअभयदेव सूरिजी, श्रीशीलाङ्गाचार्यजो, नीतिलकाचार्यजी वगैरह पूर्वाचार्य महाराज तो श्रीकल्पसूत्र तथा श्रीस्थानांगजी सूत्र और श्री आचाराङ्गजीसूत्रादि शास्त्रानुसार छ कल्याणक माननेवाले तथा चैत्यकी ८४ आशातना वर्जन पूर्वक विधिसे व्यवहार करनेवाले थे और पूर्वाचार्यो के बनाये अनेक शास्त्रों में ६४ आशातनाका वर्जन पूर्वक दिवसमें स्नात्र उच्छवादि करतेहुये विधिसे वर्ताव करनेका तथा छठे कल्याणकको मानने वगैरहका अधिकार बहुत जगहोंपर आता है और चैत्यवासीलोग श्रीमन्दिरजीकी आशातना वर्जन सम्बंधी तथा छठे कल्याणक सम्बन्धी शास्त्रोंके प्रत्यक्ष प्रमाण मौजूद होनेपर भी उस मुजब न वर्तते हुए चैत्यमें रहना वगैरह विरुद्धाचरण करते थे इसलिये उन चैत्यवासियों सम्बन्धी “यो न शेषसूरीणामज्ञात सिद्धांत रहस्याना" इत्यादि बाक्य टीकाकार महाराजनेकहे हैं नतु शुद्ध संयमी शास्त्रोक्त सत्य उपदेशक पूर्वाचार्यों सम्बंधी जिसका विशेष खुलासा ऊपरमें लिखा गया है इसलिये उपरोक्त वाक्यका भावार्थमें न्यायांभोनिधिजीने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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