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________________ [ ६२४ ] 'जितने हो गये आचार्य' ऐसा लिखकर सब पूर्वाचार्यों को सिद्धान्तके रहस्यको न जानने वाले अज्ञानी ठहराने सम्बन्धी श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजपर झूठा आक्षेप किया सो दीर्घ संसारी पनेका कारण है । और श्रीजिनबल्लभसूरिजीने तो जितने होगये उतने सब पूर्वाचार्यों को सिद्धान्त के रहस्यको न जाननेवाले अज्ञानी नहीं ठहराये परन्तु न्यायांभोनिधिजीने अपने लिखे भावार्थमें टीकाकारके विरुद्धार्थ में अपनी कल्पना मुजब अर्थ करके निजमें आपही ऐसा लिखकर सब पूर्वाचार्यों की बड़ीमारी आशातना करके अन्तर मिध्यात्वके उदयसे संसार भ्रमण दुर्लभ बोधिके हेतूरूप महान् अनर्थ करदिया और इन महाराजको झूठा दूषण लगाकर उपहासपूर्वक लिखके भोलेजीवोंको शास्त्रानुसार छ कल्याणककी सत्य बातपरसे श्रद्धा भ्रष्ट करनेका कारण किया जिसके विपाक तो भवान्तरमें भोगे विना छुटने बहुत कठिन है । ン और " प्रकर्षे खेद मित्थमेव भवति" इत्यादि - इस पंक्ति में तथा " यो न शेवसूरीणां" इत्यादि इस पंक्ति में छठे कल्याणकका नाम नहीं है तिसपर भी इन दोनों पंक्तियोंके भावार्थ में " अतिशय करके यह छठा कल्याणक ही है" और " जो यह छठा कल्याणक नहीं जाने हैं सिद्धांत के रहस्य ऐसे जितने होगये आचार्य" इस तरहका लिखकर भावार्थ में वारंवार उठे कल्याणकको लिखा सो यदि “ विधिरागभोक्तः षष्ट कल्याणक रूपश्चेत्यादि विषयः पूर्वप्रदर्शितश्च प्रकारः " इस पंक्तिको देखकर लिखा होवे तो भी मायाचारीका कारण है क्योंकि इस पंक्तिसे तो आगमोक्ल षष्ट कल्याणक ठहरता है तथा “ इत्यादि विषयः पूर्वं प्रदर्शितः च प्रकारः " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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