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________________ [ ६२२ ] विधिमार्गकी सत्य बातोंको शास्त्र प्रमाणानुसार सिद्ध करके सबके सामने प्रकाशित करनेका समझना चाहिये। ___ और “यो न शेष सूरीणामज्ञात सिद्धांत रहस्यानामित्यर्थः लोचनपथेप दृष्टिमार्ग आस्तां श्रुतिपथे ब्रजति याति उच्यते पुनर्जिन मतर्भगवद्वचन वेदिभिरिति” इन अक्षरोंका भावर्धमें भी “जो यह छठा कल्याणक नहीं जाने हैं सिद्धांतके रहस्य ऐसे जितने हो गये आचार्य उन्होंके कर्णपथमें तो दूर रहो परन्तु लोचन पथमें भी नहीं आया है ऐसा छठा कल्याणक कहा है भगवतके बचन जानने वाले श्रीजिनबल्लभ सूरिजीने" इसतरहका मतलब लिख करके न्यायांभोनिधिजीने अपनी मायाचारीकी विद्वत्ता भद्रजीवोंको दिखाकर अन्धपरम्पराकी भ्रमखाड़में बालजीवोंको गेरने थे सो गेरे और इहलोक स्वार्थसे अपनी पूजा मानतामें दृष्टिरागियोंको फसानेके थे सो फंसालिये परन्तु शास्त्र कारके विरुद्धार्थमें लिखकर पूर्वाचार्यों की आशातना करके इन महाराजको स्थाही मिथ्या दूषण लगाकर मिथ्यात्व बढ़ाते हुए निजपरके संसार इद्धिका कारण करते कुछ भी लज्जा नहीं आई क्योंकि न्यायांभोनिधिजीके ऊपर लिखे मुजब छठे कल्याणककी प्ररूपणा करने में सब पूर्वाचार्यों को अज्ञानी ठहराने सम्बन्धी उपरोक पाठका भावार्थ नहीं बनता है, किन्तु भव्यजीवोंके धर्मरूपी धन (सम्यग्दृष्टिपने) को तस्करकीतरह हरण करनेवाले, अज्ञानरूपी अन्धकारमें पड़कर मोह प्रमादरूपी निन्द्रामें सोनेवाले, अभिनिवेशिक मिथ्यात्व सेवन करतेहुये कल्पित आलम्बनोंको मायाचारीसे बालजीवोंको दिखाकर श्रीजिनाज्ञाकी विराधना करके उत्सूत्रप्ररूपणासे अविधिरूपी उन्मार्गका प्रचार करके उसमें गड्डरीह प्रवाही विवेकशून्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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