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________________ Jel #16 इससे आदर्श में कोई दोष नहीं आता। इसीलिये एक उच्च आदर्श को अपनी निर्बलता के कारण अशक्य समझ कर उसे नीचे खींच कर मलीन कर देना सर्वथा अनुचित है । जैन धर्म में साधु समाज के आचार विचार, क्रिया-कलाप, नित्य नियमों का नियमन करते समय श्रावक समुदाय की आवश्यकता श्रावक समाज के लिये भी का ख्याल कभी ओझल नहीं हुआ है । 3 दया पालन का उचित विधान है। ऐसी दया आंशिक होगी । हिंसा के जिन-जिन भेदों को या रूपों का त्याग किया जायेगा वे ही दया में सम्मिलित होते जायेंगे । यदि कोई त्रस जीवों को बिना अपराध संकल्प कर नहीं मारता तो वह उस हद तक दया का पालन करता है । इस त्याग की हद को वह स्वेच्छानुसार, निज पुरुषार्थ को देखकर बढ़ा सकता है अथवा त्याग की अवधि चूकने पर घटा भी सकता है। श्रावक के त्याग काल तथा परिमाण से सीमित हैं पर साधु के त्याग जीवन पर्यन्त सभी सावद्य योगों के हैं। इसलिये श्रावक के त्याग हैं तो मोदक ही, पर मोदक है अपूर्ण । श्रावकों को त्याग की दृष्टि से महत्व देते हुए ही पूज्यपाद भिक्षुगणी ने चतुर्विध संघ को ही रत्नों की माला की उपमा दी है। साधु समाज बड़ी माला है तो श्रावक दल छोटी । पर हैं दोनों रत्नों को ही माला | श्रावक को त्याग तथा दया की क्रमानुक्रम वृद्धि द्वारा अपने गुण रत्नों को बढ़ाते रहना चाहिये । ऐसी लालसा तथा चेष्टा ही उसके आत्मविकास में प्रधान सहायक होगी । इसीसे आदर्श की ओर उत्तरोत्तर शीघ्र गति बनी रहेगी और जो क्रिया असाध्य मालूम देती है वही साध्य प्रतीत होने लगेगी। जैन शास्त्रों में राग-द्वेष की विष ग्रन्थि के भेदने का सुन्दर एवं विस्तृत वर्णन है । चौदह गुण स्थानों का वर्णन भी राग-द्वेष के भावों की तरतम भावापन्न अवस्थाओं के आधार पर ही किया गया है। अतः क्या श्रावक क्या साधु सभी के लिये अन्तः प्रवृत्तियों को शुद्ध रखना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034470
Book TitleAnukampa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Chopda
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1948
Total Pages26
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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