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________________ ३सुख, हम कह चुके हैं, कि (१) आत्मिक या (२) इन्द्रियगम्य हो सकता है। इद्रियगम्य सुख अपनी वृद्धि वासना के प्रसार में पाता है पर यात्मिक सुख इनके संकोच में। यही कारण है कि इन्द्रियगम्य सुख की चाह हमें वास्तविक आत्मिक सुख से दूर से दूरवर, दूरतर से दूरतम ले जानेवाली है। इसी हेतु इन्द्रिय सुख सर्वथा अग्राह्य है। इन्द्रिय-सुख लिप्सा तो एक तीव्र विकार है। इस प्रमाद को गहरा करना या इसे स्वाभाविक करार देना तो प्रमाद मुक्त का कर्तव्य नहीं है। इसीलिये यह भी जोड़ देना अप्रासंगिक न होगा कि सुख के सच्चे स्वरूप का निर्णायक वही है जो वास्तविक तथ्य को समझ सके। श्रावक और दया : अब तक का सारा विवेचन स्पष्टतः संपूर्ण, सर्वाङ्गीण दया को लक्ष्य में रखकर ही किया गया है। सर्वाङ्गीण या शास्त्रीय भाषा में सार्वदेशिक दया पालन तो पूर्ण संयति साधुवर्ग के लिये ही संभव है। साधुवर्ग ही मन वचन काया से 'कृत कारित अनुमोदित', तीन करण के साथ दया का पालन कर सकता है। चूक तो छद्मस्थ साधु से भी हो सकती है पर राग और द्वेष को निर्मूल करने की सतत् एवं जागरूक चेष्टा तथा दोष सेवन का आभास मिलने पर दण्ड प्रायश्चित द्वारा उसे धो देने की क्रिया के कारण उन्हें दया का पूर्ण पालक कहा जा सकता है। ऐसा वैराग्यपूर्ण कठोर कर्तव्य पालन गृहस्थियों के लिये, गृहस्थाश्रम के भोगोपभोगों को भोगते हुए शक्य नहीं। पूर्ण, सार्वदेशिक दया का खाका खींचकर तो समाज के आदर्श की स्थापना की गई है। साधुसमाज पूर्ण दया का सुचारु परिपालन कर श्रावक मण्डली के सम्मुख जो जीवन ज्योति से भरा पूरा आदर्श रखता है वह अमूल्य है। यह साधारण अनुभव है कि आदर्श तक बहुत कम ही पहुंच सकते हैं। पर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034470
Book TitleAnukampa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Chopda
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1948
Total Pages26
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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