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________________ १८ अनुकम्पा सदाचार का बर्ताव करना, मान और लोभ के परिपक्व भावों को कम से कम, मन से निकाल फेंकना, आत्मोन्नति के लिये नितान्त आवश्यक है। हानि संसार में रहने में नहीं है पर संसार का बनकर रहने में है। नौका जब तक जल के ऊपर सैरती रहे कोई हानि नहीं पर उसमें जल भरने देने से वह डूब जायेगो। संसार से अनासक्त रहने में हानि नहीं पर आत्मा में सांसारिक मोह द्वेष तथा तद्जनित क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि मनोविकारों को भरने देने से आत्मा का पतन अवश्यम्भावी है। अतः दया का भी मन के साथ घनिष्ट सम्बन्ध है। केवल प्राण-विराधना न करना पर मन में कुविचारों को, पर के शोषण के आधार पर निज पुष्टि के भावों को, प्रबल करते रहना केवल शुष्क व्यवहार मात्र होगा। इसमें लाभ अवश्य है, पर हे नगण्य । इसी प्रकार के शंसय में पड़ कर, तो कई एक भ्रम से कह ही डालते हैं कि जैन दया विचित्र है-इसमें क्षुद्र से क्षुद्र प्राणी की विराधना रोकने के लिये तो इतना विधान है पर उस मानसिक हिंसा को, जो समाज के वर्तमान ढांचे के कारण है, रोकने का कोई प्रयत्न नहीं है। यह जैन सिद्धान्तों से अनभिज्ञ रहने की बदौलत है। जैन धर्म में बाह्याडम्बर या रूढ़िगत शुद्ध क्रिया को कहीं भी महत्व नहीं दिया गया है। केवल कई एक क्षुद्र शरीर वाले जीवों की हिंसा टालने पर मोह और द्वेष का गुलाम बने रहने से अहिंसा या दया तो नाम मात्र की ही होगी। अत: दया का उत्कर्ष तो वहीं से होगा जब पाप के आदि श्रोत राग और द्वेष के भावों को शिथिल कर दिया जाय। यही जैन धर्म का वास्तविक अभिप्राय है। अतएव कोई भी जीवन पद्धति या सामाजिक व्यवस्था हमारे राग द्वेष के भावों को हलका करने में सहायक हो तथा हम में अहिंसक भावों को पुष्ट करे तो वह जीवन पद्धति या समाज व्यवस्था जिस हद तक व्यक्तिगत क्षेत्र या सामाजिक विचारों में अहिंसा भाव को दृढ़ करती है, मान्य एवं उपादेय है। ___Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034470
Book TitleAnukampa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Chopda
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1948
Total Pages26
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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