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________________ - १५ पौद्गलिक या इन्द्रियगम्य सुख उसी हद तक रहता है जब तक सुख उत्पादक साधन इन्द्रियोंके सम्पर्क में रहें। यह सम्पर्क टूटते ही सुख की धारा भी रुक जाती है। ऐसा सुख आत्म भिन्न जड़त्व से उत्पन्न होने के कारण पराधीन है पर आत्मिक सुख आत्मा के सहज स्वाभाविक उल्लास में है। इस आनन्द का श्रोत आत्मा में है अतः यह स्व आधीन है । आत्मा नित्य है इसलिये यह आनन्द भी नित्य है। यह अनन्त चिन्ता राशि-कर्म वर्गणाओं से मुक्त होने पर प्रकट होता है अतः यह अनन्त है। यही नित्य, अनन्त आनन्द हमारा लक्ष्य हैमुमुक्षु का प्रत्येक कार्य क्रम इसी साधना के ताल पर तरङ्गित होना चाहिये। अन्य प्राणियों को मुक्ति यात्रा पर आरूढ़ कर उन्हें चालित रखना ही उनके प्रति उत्कृष्ट दया का पालन है। बाधा क्या ?: मुक्ति प्राप्ति में बाधा क्या है ? इस बाधा को देखकर उसका निराकरण करना चाहिये। हम उसी बेकार मनुष्य पाले उदाहरण को लेते हैं। बेकार मनुष्य को नौकरी मिलने पर खुशी हुई। वह काम पर गया। पर वहां पर अपने स्वामी की सत्ता देखकर उसका जी मचलने लगा कि मुझे भी वही सत्ता प्राप्त हो। अब उसे नौकरी मिलने की खुशी नहीं पर सत्ता के अभाव की कल्पना का दुःख है। यह तो स्वाभाविक ही है-"मनोरथानां न समाप्तिरस्ति”। इस तरह अपनी मांगों को बढ़ाये जाने के क्रम में मृगमरीचिका का दुःख भरा है। यदि हमारे पेट की थैली रबड़ की थैली की तरह नित्य बढ़ती ही जाय तो हमें सदा भूखा ही रहना पड़े। अपनी मांगों को संकुचित कर उन्हें निर्मूळ करने में ही उत्कृष्ट सुख है। इसी सुख की साधना से शान्ति मिल सकती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034470
Book TitleAnukampa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Chopda
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1948
Total Pages26
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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