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________________ प्रकाशकीय जैन संस्कृति एवं भारतीय संस्कृति में आचार शब्द सदाचार के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। मन में शुभ विचारों का चलना विचार है, शुभवाणी का प्रयोग उच्चार है तथा शुभ विचारों का जीवन में धारण आचार है। इस प्रकार सदाचार शब्द विचार, आचार एवं उच्चार विशुद्धता, पवित्रता नियमबद्धता को ध्वनित करता है। जैन आचार का मूल आधार सम्यक्चरित्र है। तीर्थंकरों के उपदेशानुसार आचरण करना एवं विपरीत मार्ग का परित्याग करना सम्यक्चारित्र है। जैन ग्रंथों में आचार संहिता का विवेचन साधु एवं गृहस्थ दोनों की योग्यता को ध्यान में रखते हुए किया गया है। आचार पालन में उत्कृष्टता एवं न्यूनता के आधार पर जैन आचार संहिता दो भागों में विभक्त है- श्रमणाचार एवं श्रावकाचार | श्रमणाचार आचार संहिता का मुख्य उद्देश्य आत्मसाक्षात्कार है। जबकि श्रावकाचार संहिता में व्यक्ति एवं समाज दोनों का ध्यान समाहित है। जैन परंपरा में श्रमणों के लिए पांच महाव्रत पांच समिति एवं तीन गुप्ति का विधान किया गया है। श्रावको के लिए प्रथम अष्टमूलगुणों का पालन और सप्तव्यसन का त्याग प्रधानतया होता है । द्वितीय स्थान व्रतों के पालन का आता है इस प्रकार जीवन शोधन की व्यक्तिगत मुक्ति प्रक्रिया और समाज तथा विश्व में शांति स्थापना की महात्वाकांक्षा से प्रेरित होकर ही सामाजिक व्यवहार में अपरिग्रहवाद पर विशेष बल दिया गया है, अपरिग्रह अनासक्ति का मार्ग है इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आचार में अहिंसा, विचार में अनेकांत वाणी में स्याद्वाद और व्यवहार में अपरिग्रह- ये जीवन सूत्र जैन धर्म ने हमें दिए इन्हीं सूत्रों के सहारे समाज में और विश्व में शांति स्थापित हो सकती है। जैन धर्म तथा दर्शन के का एक एक सिद्धान्त मानव जीवन की एक एक समस्या के निवारण के लिए अत्यन्त उपयोगी है। यदि हम इन सिद्धान्तों को अपने जीवन में चरित्रार्थ करें तो न केवल विश्व शान्ति की दिशा में अग्रसर होगें अपितु इनसे आत्मशुद्धि एवं आत्मा कल्याण भी कर सकते हैं। परमपूज्य राष्ट्रसंत प्राकृतकेसरी, युगदृष्टा चतुर्थ पट्टाचार्य श्री सुनीलसागर जी महाराज के पावन अमृतमयी प्रवचनों को संकलित कर "अणुव्रत सदाचार और शाकाहार" कृति के रूप में तथा डॉ. लाकेश जैन, गांधीनगर द्वारा सम्पादित कर प्राच्य विद्या एवं जैन संस्कृति संरक्षण संस्थान के महावीर पथ पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है। आचार्य भगवन् के मुखार्विन्द से मुखरित अमृतमयी वाणी को शब्दों में संजोकर पुस्तक का रूप दिया है। पूज्यवर ने बहुत ही उदारता के साथ श्रावक समाज को संबोधित कर बहुत ही कृपा की। आपके सम्बोधन से न जाने कितने लोगों का उपकार हुआ होगा, न जाने कितने भटक रहे लोगों को आपके पाथेय ने सनमार्ग मिला होगा। आपकी मृदुभाषी बोली एवं
SR No.034459
Book TitleAnuvrat Sadachar Aur Shakahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLokesh Jain
PublisherPrachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan
Publication Year2019
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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