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________________ उपस्थित नहीं हो सके तथा इन अविस्मरणीय क्षणों की स्मृतियों को भविष्य के लिए भावी पीढ़ी के लिए सहेजना तर्क संगत व कल्याणकारी लगा। इस हेतु से आचार्यश्री की प्रवचनमाला को लघु पुस्तिका के रुप में सुगठित करने का विचार किया। चूंकि 4 माह का समय बहुत लंबा होता है इसलिए प्रवचन समग्र को एक पुस्तिका में रख पाना न्याय संगत प्रतीत नहीं हुआ। __ आचार्यश्री के समस्त प्रवचन श्रावकाचार को उत्कृष्ट बनाने वाले हैं। श्रावकों के चरित्र निर्माण में अणुव्रतों की अहम् भूमिका होती है जो समाज में सदाचार को जन्म देती है और इस सदाचार की स्थापना का एक महत्वपूर्ण भाग शाकाहार है जिसकी शिक्षा की जरूरत आज के समाज को है जिसको जानकर, समझकर, आत्मसातकर अर्थात् जीवन में लाकर, जीवनशैली का भाग बनाकर आत्म कल्याण सुनिश्चित किया जा सकता है। इसलिए इस पुस्तक का शीर्षक अणुव्रत, सदाचार और शाकाहार की ओर ध्यान गया जो श्रावकाचार को सही मायने में पोषित करता है। इस संकलित प्रवचन संग्रह को अंतिम स्वरूप प्रदान करने में परमपूज्य गुरुदेव आचार्य श्री सुनीलसागरजी का वात्सल्य निवेदन स्वीकार कर गुरुदेव ने अपने व्यस्ततम साधना समय में से समय प्रदान कर मुझ पर बहुत उपकार किया है। मुनिश्री श्रुतांशसागरजी व सुधीरसागर जी ने अपनत्व के साथ श्रुत आराधना व प्रभावना के इस कार्य में मेरी गलतियों की ओर ध्यान आकर्षित कराकर मुझे उपकृत किया है। करुणामयी आर्यिका सूत्रमतिजी, सुद्रढमतिजी व सुस्वरमतिजी माताजी मेरे वे प्रेरणा स्रोत हैं जिन्होंने कभी मेरी ऊर्जा को इस दिशा में कम नहीं होने दिया। आपके कारण मुझे यह अवसर मिला मैं इसके लिए आप सभी भव्य आत्माओं का हृदय से आभारी हूँ। मैं अपने परिवारजनों के साथ साथ अग्रमिता क्रम में अपनी माता श्रीमती रैनमंजूषा देवी तथा पिता स्व. श्री विजयस्वरूपजी जैन का ऋणी हूँ जो मुझे इस तरह के काम करते देख सदैव हर्षित होते रहे, जिससे मुझे हर पल कार्य करने हेतु नव उत्साह व ऊर्जा व प्रेरणा मिलती रही। आचार्यश्री की अमृतवाणी का लाभ उत्तरोत्तर जन समुदाय, युवा पीढ़ी को मिल सके इस मंगलमय आशय से इस प्रवचनमाला के प्रथम भाग का संकलन सुज्ञ श्रद्धालुओं के सामने रखने का प्रयास किया है। मैं जिन श्रुत का मर्मज्ञ नहीं हूँ किन्तु सीखने समझने की भावना व लालसावश इस संग्रह को संकलित कर रहा हूँ जिसमें पूर्ण सावधानी के बावजूद भी गलतियां रह जाना स्वाभाविक है मैं इसकी नैतिक जिम्मेदारी स्वीकारते हुए क्षमा प्रार्थना करता हूँ तथा नम्र निवदेन करता हूँ कि उसे सुधार कर पढ़ें तथा मुझे उससे अवगत कराकर अनुग्रहीत करें। - डॉ. लोकेश जैन प्रोफेसर- ग्रामीण प्रबंध विभाग, प्रबंधन एवं प्रोद्योगिकी संकाय, गुजरात विद्यापीठ, ग्रामीण परिसर-रांधेजा- गांधीनगर (गुजरात)
SR No.034459
Book TitleAnuvrat Sadachar Aur Shakahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLokesh Jain
PublisherPrachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan
Publication Year2019
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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