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सम्यग्दर्शन की विधि
स्वानुभूति रहित श्रद्धा अब, स्वानुभूति रहित श्रद्धा के विषय में बतलाते हैं - पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध के श्लोक
श्लोक ४२३ : अन्वयार्थ :- ‘स्वानुभूति रहित श्रद्धा (अर्थात् कोई ऐसा माने कि नौ तत्त्व की श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है अथवा सच्चे देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा को सम्यग्दर्शन मानते हों तो वैसी स्वानुभूति रहित श्रद्धा) समीचीन (सच्ची - कार्यकारी) श्रद्धा नहीं होती इसलिये जो सम्यग्दर्शन के लक्षणभूत श्रद्धा यौगिक रूढ़ि-निरुक्ति से (अर्थात् स्वानुभूति रूप योग सहित की) सिद्ध अर्थवाली है (अर्थात् सच्ची है - कार्यकारी है) वह भी वास्तव में स्वानुभूति की भाँति अविरुद्ध कथन है (इसलिये श्रद्धा रूप सम्यग्दर्शन, वह स्वानुभूति रूप सम्यग्दर्शन ही है)।' ।
स्वानुभूति रहित श्रद्धा कार्यकारी नहीं है। इसलिये पूर्व में बतलाये अनुसार मात्र व्यवहार नय को ही मान्य करनेवाले ज़्यादातर लोग ऐसा मानते हैं कि-सम्यग्दर्शन अर्थात् सात/नौ तत्त्वों की (स्वात्मानुभूति रहित) श्रद्धा अथवा सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की (स्वात्मानुभूति रहित) श्रद्धा। सम्यग्दर्शन की यह व्याख्या व्यवहार नय के पक्ष की है। वैसी स्वानुभूति रहित श्रद्धा समीचीन (सच्ची - कार्यकारी) नहीं होती। इसलिये जो सम्यग्दर्शन के लक्षणभूत श्रद्धा यौगिक रूढ़ि - निरुक्ति से यानि स्वात्मानुभूति रूप योगसहित की सिद्ध अर्थवाली है यही सच्ची है = कार्यकारी है और यह समीचीन (सच्ची - कार्यकारी) श्रद्धा भी वास्तव में स्वानुभूति की भाँति अविरुद्ध कथन है। वैसी श्रद्धा रूप सम्यग्दर्शन स्वानुभूति रूप सम्यग्दर्शन ही है अर्थात् जो एक को अर्थात् आत्मा को जानता है, वही सर्व को अर्थात् सात/नौ तत्त्वों को और सच्चे देव-गुरु-शास्त्र को जानता है। क्योंकि एक आत्मा को जानते ही वह जीव सच्चे देव तत्त्व का आंशिक अनुभव करता है
और इसीलिये वह सच्चे देव को अन्तर से पहचानता है और ऐसे सच्चे देव को जानते ही अर्थात् स्वात्मानुभूति सहित श्रद्धा होते ही वह जीव वैसा देव बनने के मार्ग में चलनेवाले सच्चे गुरु को भी अन्तर से पहचानता है और साथ ही साथ वह जीव वैसे देव बनने का मार्ग बतलानेवाले सच्चे शास्त्र को भी पहचानता है।
निश्चय सम्यग्दर्शन की सच्ची व्याख्या ऐसी होने पर भी व्यवहार नय के पक्षवाले को सम्यग्दर्शन की ऐसी सच्ची व्याख्या मान्य नहीं होती। वे ऐसी व्याख्या का ही विरोध करते हैं और