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सम्यग्दर्शन की विधि
सम्यग्दर्शन का स्वरूप सम्यग्दर्शन, मोक्षमार्ग के द्वार समान है। पूर्ण भेद ज्ञान स्वरूप स्वात्मानुभूति रूप सम्यग्दर्शन हुए बिना मोक्षमार्ग में प्रवेश सम्भव ही नहीं है। ऐसे भेद ज्ञानयुक्त-स्वात्मानुभूतियुक्त सम्यग्दर्शन
को ही निश्चय सम्यग्दर्शन कहा जाता है। वही मोक्षमार्ग के प्रवेश के लिये वास्तविक अनुमति पत्र है और यह अनुमति पत्र मिलने के बाद वह जीव नियम से अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल में सिद्ध हो ही जाता है, इस कारण से इस जीवन में सबसे पहले यदि कुछ प्राप्त करने योग्य है तो वह सम्यग्दर्शन ही है।
प्रथम हम सम्यग्दर्शन का स्वरूप समझेंगे। सम्यग्दर्शन अर्थात् देव-गुरु-धर्म का स्वरूप जैसा है वैसा समझना, अन्यथा नहीं और जब तक कोई भी आत्मा अपना यथार्थ स्वरूप नहीं समझती अर्थात् स्व की अनुभूति नहीं करती, तब तक देव-गुरु-धर्म का यथार्थ स्वरूप भी नहीं जानती परन्तु वह देव-गुरु-धर्म के मात्र बाह्य स्वरूप की ही श्रद्धा करती है। वह उसे ही सम्यग्दर्शन समझती है परन्तु देव-गुरु-धर्म के बाह्य स्वरूप की ही श्रद्धा यथार्थ श्रद्धा नहीं है और इसलिये वह निश्चय सम्यग्दर्शन का लक्षण नहीं, क्योंकि जो एक को (आत्मा को) जानता है वह सर्व को (जीव-अजीव इत्यादि नौ तत्त्व और देव-गुरु-धर्म के यथार्थ स्वरूप को) जानता है, अन्यथा नहीं। क्योंकि अन्यथा है वह व्यवहार (उपचार) कथन है और इसलिये वह सम्यग्दर्शन भव के अन्त के लिये कार्यकारी नहीं है। एक आत्मा को जानने से ही वह जीव सच्चे देव तत्त्व का आशिक अनुभव करता है और इसीलिये वह सच्चे देव को अन्तर से पहचानता है और वैसे सच्चे देव को जानते ही अर्थात् (स्वात्मानुभूति सहित की) श्रद्धा होते ही वह जीव वैसे देव बनने के मार्ग में गमनशील सच्चे गुरु को भी अन्तर से पहचानता है और साथ ही साथ वह जीव वैसा देव बनने के मार्ग बतलानेवाले सच्चे शास्त्र को भी पहचानता है।
इसलिये प्रथम तो शरीर को आत्मा न समझना और आत्मा को शरीर न समझना अर्थात् शरीर में आत्मबुद्धि होना, वह मिथ्यात्व है। शरीर तो पुद्गल (जड़) द्रव्य का बना हुआ है और आत्मा, वह अलग ही (चेतन) द्रव्य होने से पुद्गल को आत्मा समझना अथवा आत्मा को पुद्गल समझना, वह विपरीत समझ है। वास्तव में पुद्गल से भेद ज्ञान और स्व के अनुभव रूप ही वास्तविक सम्यग्दर्शन होता है और वह कर्म से देखने में आये तो कर्मों की पाँच/सात प्रकृति का उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय को सम्यग्दर्शन कहा जाता है, परन्तु छद्मस्थ को कर्मों का