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________________ 22 सम्यग्दर्शन की विधि नित्य-अनित्यात्मक सिद्ध होता है, परन्तु एकान्तवाद से नहीं।' अर्थात् जिन्हें एकान्त का ही आग्रह है उन्हें अपने पर दया लाकर शीघ्रता से उस एकान्त का आग्रह -पक्ष छोड़कर, यथार्थ धारणा कर लेना अत्यन्त आवश्यक है। यही बात आगे अधिक दृढ़ होती है श्लोक ११७ : अन्वयार्थ :- ‘गुण नित्य हैं तो भी वे निश्चय से अपने स्वभाव से ही प्रत्येक समय परिणमन करते रहते हैं और वह परिणमन भी उन गुणों की ही अवस्था है परन्तु गुणों की सत्ता से उनकी सत्ता (सत्) कहीं भिन्न नहीं है।' इसलिये एक सत्ता के दो, तीन, चार... सत् माननेवाले यदि अपेक्षा से समझें तो दिक्कत नहीं है परन्तु सत् अर्थात् सत्ता एक द्रव्य की वास्तविक (यथार्थ) अभेद-अखण्ड एक ही होती है, भेद अपेक्षा से एक सत्ता के दो, तीन, चार,.. सत् कहे जाते हैं परन्तु वैसा एकान्त से नहीं माना जाता। भावार्थ :- ‘गुणों की प्रतिसमय होनेवाली अवस्था का नाम ही पर्याय है, पर्यायों की सत्ता (सत्) कहीं गुणों से भिन्न नहीं है इसलिये द्रव्य की भाँति वे गुण भी गण की दृष्टि से नित्य तथा अपनी पर्याय रूप अवस्थाओं से उत्पन्न तथा नष्ट होने के कारण से अनित्य कहने में आते हैं...' इसलिये समझना यह है कि यदि कोई द्रव्य और पर्याय के प्रदेश भिन्न मानते हों तो उनके भाव की अपेक्षा से कहे जा सकते हैं परन्तु वास्तविक प्रदेश भेद नहीं है। इसलिये ऐसी एकान्त धारणा जीव को मिथ्या दृष्टि बनाती है। विधान कोई भी हो उसकी अपेक्षा समझकर बोलना अथवा मानना, एकान्त से नहीं; अन्यथा ऐसी बातें अनेक लोगों के अध:पतन का कारण बनती हैं; इसलिये ऐसे एकान्त प्ररूपणा के आग्रही मिथ्या दृष्टियों से दूर ही रहना आवश्यक है, अन्यथा आप स्वयं भी अनन्त संसारी मिथ्या दृष्टि रूप अनन्त दु:ख का ही घर बनेंगे। एकान्त आग्रही लोगों से हमारा अनुरोध है कि आप किसी भी विधान की अपेक्षा समझे बिना एकान्त से ग्रहण करके, एकान्त का आग्रह रखकर यदि जैन शासन का भला करना चाहते हों तो वह आपकी महान भूल है, वह तो जैन शासन के अध:पतन का ही निमित्त बनेगा और कितने ही जीवों के अध:पतन का कारण भी बनेगा। उन सबके अध:पतन की जवाबदारी ऐसे एकान्त प्ररूपणा और एकान्त का आग्रह करनेवालों की ही है, इसलिये उनकी दशा के विषय में विचार कर हमें बहुत ही करुणा उत्पन्न होती है और इसी कारण से हमको यहाँ इतना अधिक स्पष्टीकरण करने की आवश्यकता हुई। श्लोक ११९ : अन्वयार्थ :- ‘गुणों के तद्वस्थ (अर्थात् अपरिणामी-कूटस्थ), उनके
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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