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________________ पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तु व्यवस्था दर्शाते श्लोक समझना यह है कि जो उपादान है अर्थात् जो द्रव्य अथवा गुण है, वह स्वयं ही कार्य रूप परिणमन करता है और उस कार्य की अपेक्षा से वह अनित्य है। लेकिन उपादान की अपेक्षा से नित्य है, ऐसा स्वरूप है नित्य-अनित्य का। यदि कोई इस स्वरूप से विपरीत धारणा सहित स्वयं को सम्यग्दृष्टि मानते हों अथवा मनाते हों तो उन्हें नियम से भ्रम में ही समझना क्योंकि भ्रम की भी शान्ति और आनन्द वेदन में आता है। यदि अनन्त संसार से बचना हो तो हमारा निवेदन है कि आप अपनी धारणा सम्यक् कर लें और अगर कोई संसारी जीव को एकान्त अशुद्ध मानकर स्वयं को सम्यग्दर्शन माने या समझे तो वह भी भ्रम में ही है। वह मान्यता भी एकान्त है क्योंकि संसारी जीव पर्यायार्थिक नय से अशुद्ध अवश्य है, मगर वही संसारी जीव द्रव्यार्थिक नय से परम शुद्ध है अर्थात् त्रिकाल शुद्ध है। ऐसा है वस्तु स्वरूप जिनशासन का, जो एकान्त नयों से पराभूत नहीं होता। द्रव्यार्थिक नय से कोई भी आत्मा में रागादि का अस्तित्व नहीं है परन्तु पर्यायार्थिक नय से अज्ञानी आत्मा नियम से रागादि रूप परिणमता है, ऐसा है जिन शासन का अनेकान्त। जिसे यह अनेकान्तमय स्वरूप यथार्थ रूप से समझ में नहीं आता, उन्हें अपने आपको जिनशासन से बाह्य ही समझना चाहिये। भावार्थ :- “जिस समय ज्ञान घट को छोड़कर पट को विषय करने लगता है, उस समय पर्यायार्थिक दृष्टि से घट ज्ञान का व्यय और पट ज्ञान का उत्पाद होने से ज्ञान को अनित्य कहा जाता है तथा उसी समय पर्यायार्थिक नय की गौणता और द्रव्यार्थिक नय की मुख्यता से (समझना यह है कि जैन सिद्धान्त की समस्त बातें मुख्य-गौण अपेक्षा से ही होती हैं, एकान्त से नहीं। इसलिये जो एकान्त के आग्रही हैं, वे ऊपर बतलाये अनुसार नियम से मिथ्यात्वी हैं, अनन्त संसारी हैं, इसलिये वैसी धारणा हो तो अपने ऊपर कृपा करके यानी अपने ऊपर दया लाकर शीघ्रता से अपनी धारणा ठीक कर लेना अत्यन्त आवश्यक है) देखने पर घटज्ञान और पटज्ञान रूप दोनों अवस्थाओं में ज्ञान सामान्य होने से (अर्थात् वे अवस्थाएँ ज्ञान गुण की ही बनी हुई हैं, इसलिये उन अवस्थाओं को गौण करते ही अर्थात् ज्ञेयाकारों को गौण करते ही वहाँ ज्ञान गुण साक्षात् हाज़िर ही है, इसी प्रकार द्रव्य में भी अवस्थाओं को गौण करते ही साक्षात् द्रव्य हाज़िर ही हैपूर्ण द्रव्य अवस्था रूप से ही व्यक्त होता है और जो सामान्य रूप से द्रव्य है उसे ही अव्यक्त कहने में आता है। इसलिये वह व्यक्त, अव्यक्त का ही बना हुआ है) ज्ञान को ध्रौव्य अर्थात् नित्य (ऐसा है जैन सिद्धान्त का त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा) भी कहने में आता है (ऐसा है जैन सिद्धान्त का त्रिकाली ध्रुव-कूटस्थ-अपरिणामी, अन्यथा नहीं)। इसलिये अपेक्षा वाद से ज्ञान गुण कथंचित्
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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