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________________ नित्य चिन्तन कणिकाएँ 227 करने पर भी कम धन प्राप्त होता ज्ञात होता है। इसलिये यह निश्चित होता है कि धन प्रयत्न की अपेक्षा पुण्य का अधिक वरण करता है। इसलिये जिसे धन के लिये मेहनत करना आवश्यक लगता हो, उसे भी अधिक में अधिक आधा समय ही अर्थोपार्जन में और कम से कम आधा समय तो धर्म में ही लगाने योग्य है। क्योंकि धर्म से अनन्त काल का दु:ख मिटता है और साथ ही साथ पुण्य के कारण धन भी सहज ही प्राप्त होता है। जैसे गेहूँ बोने पर साथ में घास अपने-आप ही प्राप्त होती है, उसी प्रकार सत्य धर्म करने से पाप हल्के होते हैं और पुण्य तीव्र होते हैं, इसलिये भवान्त के साथ-साथ धन और सुख अपने आप ही प्राप्त होते हैं। भविष्य में अव्याबाध सुख तथा मुक्ति मिलती है। • पुरुषार्थ से धर्म होता है और पुण्य से धन मिलता है। अर्थात् पूर्ण पुरुषार्थ धर्म में लगाना और धन कमाने में कम से कम समय गँवाना। क्योंकि वह धन मेहनत के अनुपात में नहीं मिलता परन्तु पुण्य के अनुपात में मिलता है। • कर्मों का जो बन्ध होता है, उसके उदय काल में आत्मा के कैसे भाव होंगे अर्थात् उन कर्मों के उदय काल में नये कर्म कैसे बन्धेगे, उसे उस कर्म का अनुबन्ध कहते हैं; वह अनुबन्ध, अभिप्राय का फल है; इसलिये सम्पूर्ण पुरुषार्थ अभिप्राय बदलने में लगाना अर्थात् अभिप्राय को सम्यक् करने में लगाना चाहिये। स्वरूप से मैं सिद्ध सम होने पर भी, राग-द्वेष मेरे कलंक समान हैं, इसलिये उन्हें धोने के (मिटाने के) ध्येयपूर्वक धैर्य सहित धर्म रूपी पुरुषार्थ करना। - सन्तोष, सरलता, सादगी, समता, सहिष्णुता, सहनशीलता, नम्रता, लघुता तथा विवेक आत्म प्राप्ति की योग्यता के लिये जीवन में अभ्यास में लाना अत्यन्त आवश्यक है। • तपस्या में विशुद्ध ब्रह्मचर्य अति श्रेष्ठ है। . सांसारिक जीव निमित्तवासी होते हैं, कार्य रूप तो नियम से उपादान ही परिणमता है परन्तु उस उपादान में कार्य हो, तब निमित्त की उपस्थिति अविनाभावी होती ही है; इसीलिये विवेक से मुमुक्षु जीव समझता है कि कार्य भले मात्र उपादान में हो परन्तु इस कारण से उन्हें स्वच्छन्द से किसी भी निमित्त-सेवन की अनुमति नहीं मिल जाती और इसीलिये वे निर्बल निमित्तों के भीरु भाव से दूर ही रहते हैं। • साधक आत्मा के लिए टीवी, सिनेमा, नाटक, मोबाईल, इंटरनेट इत्यादि कमज़ोर
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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