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सम्यग्दर्शन की विधि
क्यों छोड़ते हैं (अर्थात् वे अज्ञानी जीव अपने परम पारिणामिक भाव रूप - सहज परिणमन रूप ज्ञान सामान्य भाव का अनुभव क्यों नहीं करते) और राग-द्वेषमय क्यों होते हैं ? (ऐसे आचार्यदेव ने करुणा की है)'।
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वस्तु स्वरूप जैसा है, वैसा समझकर सभी लोग सम्यग्दर्शन प्राप्त करें, ऐसा ही आचार्यदेव का उद्देश्य है। जो कोई यहाँ बतलाये गये वस्तु स्वरूप से विपरीत मान्यता पोषित करते हों अथवा प्ररूपित करते हों तो उन्हें शीघ्रता से अपनी मान्यता यथार्थ कर लेना अत्यन्त आवश्यक है, जिससे वे भ्रम में से बाहर निकल सकें और अपना तथा अन्य अनेकों के अहित का कारण बनने से बच सकें और वर्तमान मानव भव सार्थक कर सकें।
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श्लोक २३२ 'पूर्व में अज्ञान भाव से किये हुए जो कर्म हैं, उन कर्म रूपी विष वृक्षों के फल को जो पुरुष (उनका स्वामी होकर) भोगता नहीं और वास्तव में अपने से ही (आत्म स्वरूप से ही - उसके अनुभव से ही) तृप्त है, वह पुरुष, जो वर्तमान काल में रमणीय है (यानि अतीन्द्रिय आनन्दयुक्त है) और भविष्य में भी जिसका फल रमणीय है, ऐसी निष्कर्म सुखमय (यानि सिद्ध दशारूप) दशान्तर को पाता है । '
इस अधिकार का मर्म यह है कि जो शुद्धात्मा में स्थित है, ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव, मात्र जानने में ही रहने से अभी भी अतीन्द्रिय आनन्द में है और उसका भविष्य भी वही है। भविष्य में सिद्ध के अनन्त सुख उसका स्वागत करने खड़े ही हैं। इसीलिये शुद्धात्मा की प्राप्ति ही सभी का कर्तव्य है। निश्चय से शुद्धात्मा ही सर्व जनों को शरणभूत है।